Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 581
________________ निरंजन पद प्राप्त करने पर मन परमेश्वर में एकाकार और समरस हो जाता है। इसका सुन्दर विवेचन उनकी रचनाओं में हुआ है। मुनि रामसिंह की पादुड दोहा रहस्यवाद की दृष्टि से सुन्दर कृति है। योगीन्दु मुनि के समान ही वे भी कहते हैं कि जब विकत्य रूप मन भगवान आत्माराम से मिल गया और ईश्वर भी मन से मिल गया। दोनों समरसता की स्थिति में पहुंच गए, तब पूजा किसे चढ़ाऊँ। ___ अपभ्रंश साहित्य के रहस्यवादी कवियों के अनन्तर मध्ययुग के जैन हिन्दी रहस्यवादी कवियों में बनारसीदास का नाम सबसे पहले आता है। नाटक समयसार, अध्यात्म गीत, बनारसी विलास आदि इनकी रहस्यवादी रचनाएँ अध्यात्म प्रधान है। बनारसीदास की आत्मा अपने प्रियतम परमात्मा से मिलने के लिए उत्सुक है। वह अपने प्रिय के वियोग में ऐसी तड़प रही है, जैसे जल बिनु मीन। अन्त में प्रियतम से मिलने पर मन की दुविधा समाप्त हो जाती है। उसे अपना पति घट में ही मिल जाता है। मिलने पर आत्मा और परमात्मा किस प्रकार एकाकार और एकरस हो जाते हैं, इसका सुन्दर चित्र निम्नलिखित पद में अभिव्यक्त हुआ है पिय मोरे घट मैं पिय माहि, जलतरंग ज्यों दुविधात नाहिं।। वास्तव में, बनारसीदास ने सुमति और चेतन के बीच अद्वैतभाव की स्थापना करते हुए रहस्यवाद की साधना की है। बनारसीदास के बाद हिन्दी जैन रहस्यवादी सन्त कवियों में सन्त आनन्दघन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बनारसीदास की भांति ही इन्होंने भी आत्मा-परमात्मा का प्रिय-प्रेमी के रूप में चित्रण किया है। इन्होंने चेतन रूप प्रियतम के विरह में समता रूपी आत्मा की तड़पन का मार्मिक चित्र खींचा है। __ आनन्दघन की रचनाओं में रहस्यवाद के मूलतः दो रूप उपलब्ध होते हैं-1. साधनात्मक रहस्यवाद, 2. भावनात्मक रहस्यवाद। उनमें भावना के माध्यम से जागी हुई अनुभूति समता और चेतन की एकता की अद्वैतानुभूति है। भावनात्मक रहस्यवाद में रहस्यवाद की विविध अवस्थाएँ हैं, उनकी गहरी अनुभूति उनके पदों में अभिव्यंजित हुई है। उनकी भावनामूलक अनुभूति अध्यात्म रस से सिक्त है। वस्तुतः उनकी रचनाओं में अध्यात्म का गूढ़ रहस्य निहित है। श्रेयांस जिन स्तवन में तो उन्होंने अध्यात्म को पूर्णरूपेण भर दिया है। उनकी यह कृति अध्यात्मवाद की दृष्टि से सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत करती है। इसमें न केवल अध्यात्मवाद के स्वरूप का चित्रांकन हुआ है अपितु अध्यात्म के लक्षण और विविध रूपों पर भी प्रकाश डाला गया है। सर्वप्रथम अध्यात्मवादी-आत्मारामी और भौतिकवादी-इन्द्रियरामी के अन्तर को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं सयल संसारी इन्द्रियरामी, मुनिगण आतमरामी रे। मुख्यपणे जे आतमरामी, ते केवल निष्कामी रे।।170 जो एन्द्रिक पौद्गलिक या भौतिक मुख को ही महत्त्व देते हैं, ऐसे संसार के समस्त जीव इन्द्रियकामी यानी भौतिकवादी कहे जाते हैं। किन्तु इसके विपरीत सामान्यतः जो इन्द्रिय-सुखों से ऊपर 501 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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