Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ दर्शनवादिता के दिव्य दृष्टिकोण को दूरदर्शिता से सुदृढ़ प्रस्तुत करने में आत्मवाद ही प्रमुख रहा है। वो आचारों को भी अपनाता है और विचारों को भी पनपाता है। आचार और विचार दोनों ही आत्मवाद की अमूल्य निधि है, जो जीवन-विधि को जीवित रखते हुए जगत् में अद्यावधि सुरक्षित है। आत्मा संबंधी मान्यताएँ भिन्न-भिन्न दर्शन में विविध प्रकार से मिलती है। आस्तिक दर्शन प्रायः करके सभी आत्मा को स्वीकार करते हैं, चाहे वो किसी भी रूप में माने। लेकिन आत्मा के अस्तित्व को नकारने में सबसे अधिक प्रसिद्धि बृहस्पति या चार्वाक दर्शन को मिली है। सूत्रकृतांग के अध्ययन से ज्ञात होता है कि महावीर के युग में भूतवादियों के अनेक सम्प्रदाय रहे हैं फिर भी जैन दर्शन में आत्मा की स्थिति बहुत स्पष्ट है। उपाध्याय यशोविजयजी द्वारा आत्मा के सम्बन्ध में अन्य दार्शनिकों के मतों की समीक्षा . भारतीय दर्शनों में आत्मा के विषय में भिन्न-भिन्न मान्यताएँ हैं। कोई आत्मा के अस्तित्व को नहीं स्वीकारते हैं, तो कोई आत्मा को नश्वर मानते हैं। कोई बुद्धि को, कोई इन्द्रिय या मन को और कोई विज्ञान-संधान को आत्मा समझता है। कोई आत्मा को नित्य मानता है, कोई आत्मा कर्म का कर्ता और भोक्ता भी आत्मा नहीं है, ऐसा मानते हैं। वस्तुतः चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, नैयायिक आदि दर्शनों में आत्मा की अवधारणा युक्तिसंगत नहीं है। उपाध्याय यशोविजय ने गहराई में जाकर इन सभी मतों की समीक्षा की है। चार्वाक दर्शन भारतीय दर्शनों में चार्वाकदर्शन या लोकावत दर्शन 2500 वर्ष से पुराना मानते हैं। यह दर्शन आत्मा, मोक्ष, पुण्य और पाप का फल आदि की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार नहीं करता है, इसलिए इसे नास्तिक दर्शन भी कहते हैं। यह दर्शन प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है तथा शरीर एवं चेतना को अभिन्न स्वीकार करता है। वो शरीर एवं आत्मा को एक ही मानते हैं। उपाध्यायजी इस मत की समीक्षा करते हुए लिखते हैं कि तदेत् दर्शनं मिथ्या जीवः प्रत्यक्ष एव यत्। गुणानां संशयादीनां प्रत्यक्षाणामभेदतः।।16।।" अर्थात् चार्वाक दर्शन की यह मान्यता मिथ्या है कि शरीर ही आत्मा है। कारण यह है कि संशयादि के कारण जीव प्रत्यक्ष ही है। आत्मा है या नहीं 'किम अस्मि नास्मि' (मैं हूँ या नहीं) यह संशय किसको होता है। विचारशक्ति, चिंतन, मननशक्ति के कारण ही यह शंका उत्पन्न हुई और इस विचारशक्ति को हम ज्ञानगुण के रूप में पहचान सकते हैं। चूँकि गुणी के बिना गुण नहीं रह सकता है, तथा गुण और गुणी में कथंचित् अभेद होता है। अतः आत्मा ही गुणी है, इस प्रकार की शंका के प्रत्यक्ष आत्मा का प्रत्यक्ष सिद्ध होता ही है। विशेषावश्यक भाष्य की टीका में भी कहा गया है-देह मूर्त और जड़ है, 'संशय' ज्ञानरूप है और ज्ञान आत्मा का गुण है तथा आत्मा अमूर्त है। गुण अनुरूप गुणी में ही रहते हैं। ज्ञानगुण अगर शरीर का गुण मानते हैं तो यह गुण 'शव' में भी होना चाहिए परन्तु 'शव' संशय करके कुछ नहीं पूछता है। पूछने वाला शरीर से भिन्न है, इसी को आत्मा कहते हैं। पाश्चात्त्य विचारक डेकार्ट ने भी इसी तर्क के आधार पर आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया है। वह कहता है कि सभी 524 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org