________________ 3. गुणों पर द्वेष और 4. आत्मा की अज्ञान दशा।" बहिर्मुखी आत्मा को आचारांग में बाल, मंद और मूढ़ नाम से अभिव्यक्त किया गया है। यह अवस्था चेतना या आत्मा की विषयामुखी प्रवृत्ति की सूचक है। जब तत्त्व पर सम्यक् श्रद्धा, सम्यग्ज्ञान, महाव्रतों का ग्रहण, आत्मा की अप्रमादी दशा और मोह पर विजय प्राप्त होती है तब अन्तरात्मा की अवस्था अभिव्यक्त होती है। गुणस्थानक की दृष्टि से तेरहवाँ सयोगीकेवली और 14वां अयोगीकेवली के गुणस्थानक पर रहा हुआ आत्मा परमात्मा कहलाता है। संक्षेप में आत्मा की जो शक्तियाँ तिरोहित हैं, उन्हीं शक्तियों को प्रकट करने के लिए अन्तरात्मा पुरुषार्थ करते हुए आध्यात्मिक विकास मार्ग में आगे बढ़ती है। आत्मा में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र एवं सम्यगृत्वरूपी दीप के प्रज्वलित होने पर ज्ञानावरणीय आदि घातीकर्मों के आवरण हट जाते हैं तथा अनंतचतुष्ट्य का प्रकटन होता है और आत्मा अन्तरात्मा से परमात्मा बन जाती है। ___आत्मा के सन्दर्भ में अन्य दर्शनों की अवधारणा के सन्दर्भ में संक्षेप में कह सकते हैं कि समस्त भारतीय दर्शनों ने यह स्वीकार किया है कि आत्मा का स्वरूप चैतन्य है। चार्वाक दर्शन ने भी आत्मा को चेतन ही कहा है। उसके अनुसार आत्मा चेतन होते हुए भी शाश्वत तत्त्व नहीं, वह भूतों से उत्पन्न होती है। बौद्ध मत के अनुसार चेतन तो जन्य है परन्तु चेतन संतति अनादि है। चार्वाक प्रत्येक जन्य चेतना को सर्वथा भिन्न या अपूर्व ही मानते हैं। बौद्ध प्रत्येक जन्य चैतन्य क्षण को उसके पूर्वजनक क्षण से सर्वथा भिन्न अथवा अभिन्न होने का निषेध करते हैं। बौद्ध दर्शन में चार्वाक का उच्छेदवाद तथा उपनिषदों और अन्य दर्शनों का आत्मशाश्वतवाद मान्य नहीं, अतः वे आत्म संतति को अनादि मानते हैं, आत्मा को अनादि नहीं मानते। सांख्ययोग, न्याय-वैशेषिक, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा और जैन-ये समस्त दर्शन आत्मा को अनादि स्वीकार करते हैं। योग के सन्दर्भ में आत्मा अवबोध को उच्चतम उपयुक्त बनाने में योग की अपेक्षा रखता है। इसीलिए योग शब्द कई भावों से भव्य है, जिससे योग्यता अत्युन्नत झलकती हो, चमकती हो और चेहरे पर दिव्यता दर्शाती हो, उसको भी योग-साधना के नाम से पुकारते हैं। जहाँ निर्विकारता निश्चल होकर निर्विघ्न रहती है, वहाँ योग की योग्यता बसी हुई मिलती है। योग में दार्शनिकता भी है, दूरदर्शिता भी है और आत्मतत्त्व की स्पर्शिता भी है। जहाँ सुबोध स्पर्श करता हुआ स्वयं में प्रकाशवान बन प्रकाशित हो जाता है, वहाँ योग अपने आप में आत्म-निर्भर रहता हुआ एक अलौकिक तत्त्व का प्रकाश फैलाता है। वैसे योग विषयक कुछ नियम निर्धारित हुए ग्रंथ सर्जित हुए, योग ज्ञान की गुण गरिमा चर्चित बनी, कहीं अर्चित हुई और कहीं-कहीं आचरित होकर अपने आप में योग की संज्ञा धारण करती गई। अन्य दर्शनों में भी योग का सन्मान मिला है, स्थान मिला है। जैन दर्शन में भी योग की भूमिका पर अपना आत्म-अभ्युदय उल्लिखित किया है। इसलिए योग हमारी संस्कृति का एक मूलाधार विषय बनकर साहित्य में स्थान पाया है। 529 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org