Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ संसार के समस्त पदार्थ मायिक हैं। मायिक होने से ही उनकी सत्ता प्रतीत होती है। जब तक ब्रह्म ज्ञान नहीं होता, तब तक ही संसार की सत्ता है। जैसे किसी पुरुष को रस्सी के सर्प का ज्ञान हो जाता है किन्तु वह ज्ञान तब तक ही रहता है, जब तक कि “यह रस्सी है, सर्प नहीं" इस प्रकार का सम्यग्ज्ञान नहीं होता। जिस प्रकार रस्सी में सर्प की कल्पित सत्ता रस्सी के विषय में सम्यग्ज्ञान न होने तक ही रहती है, उसी प्रकार ब्रह्मज्ञान न होने तक ही संसार की सत्ता है और ब्रह्मज्ञान होते ही यह जीव अपनी पृथक् सत्ता को खोकर ब्रह्म में लीन हो जाता है। इस प्रकार जीव और ब्रह्म के तादात्म्य को मुक्ति कहा गया है। रामानुज के अनुसार मुक्तावस्था में यद्यपि जीव ब्रह्म में मिल जाता है, फिर भी उसका पृथक् अस्तित्व बना रहता है। वह अपने अस्तित्व को खो नहीं देता है। चित्सुकाचार्य के मतानुसार परमानन्द का साक्षात्कार ही मोक्ष है आनन्द ब्रह्मणो रूपं, तच्च मोक्षेऽभिव्यज्यते।। ब्रह्म या आत्मा का स्वरूप आनन्द है और मोक्ष में उस आनन्द की अभिव्यक्ति होती है। पद्यपादाचार्य मिथ्याज्ञान के अभाव को मोक्ष कहते हैं। अभी तक हमने चार्वाक और वैदिक दर्शनों में वर्णित मोक्ष के स्वरूप का विचार किया अब श्रमण दर्शनों में मोक्ष के स्वरूप पर विचार करेंगे। श्रमण दर्शन मुख्यतः दो हैं-बौद्ध और जैन। बौद्ध दर्शन बौद्धदर्शन क्षणिकवादी दर्शन है। वह कर्म, पुनर्जन्म और परिनिर्वाण में विश्वास करता है। उसके अनुसार आत्मा क्षणिक विज्ञान रूप है, उसे नित्य तत्त्व मानना ही दुःख का मुख्य हेतु है। अतः परिनिर्वाण के समय जैसे शरीर उच्छेद्य है, आत्मा भी हेय है। माध्यमिक शून्यवाद के अनुसार आत्मा का उच्छेद ही मोक्ष है आत्मोच्छेदो मोक्षः। विज्ञानवादी बौद्ध मुक्ति को ज्ञानमय मानते हैं। उनके अनुसार ज्ञान का धर्मी आत्मा जब निवृत्त . हो जाता है, तब निर्मल ज्ञान का उदय होना ही मोक्ष है धर्मिनिवृत्तो निर्मलज्ञानोदयो महोदयः। मोक्ष के लिए बौद्ध वाङ्मय में निर्वाण शब्द अधिक प्रचलित है। निर्वाण का अर्थ है-बुझ जाना। पुनर्जनम के रास्ते को छोड़ देना, सभी दुःखों के निदानभूत कर्म संस्कारों से मुक्ति पांच स्कन्धों एवं तीन अग्नियों-काम, द्वेष और अज्ञान से छुटकारा। वस्तुतः निर्वाण के विषय में बौद्ध दर्शन का मत न एकान्त विधेयात्मक है और न एकान्त-निषेधात्मक। अतः कहा जा सकता है कि बौद्ध दर्शन में निर्वाण का सिद्धान्त सुसम्बद्ध रूप में उपलब्ध नहीं होता। जैन दर्शन में मोक्ष का स्वरूप जैन दर्शन का मोक्षवाद इन सबसे विलक्षण है। वह न आत्मा की पूर्ण स्वतन्त्रता में विश्वास करता है और न ईश्वर कर्तृत्व में। वह न एकान्त द्वैतवादी है और न सर्वथा अद्वैत का प्रतिपादन कर जगत् को शंकर के समान पूर्णतः मिथ्या बताता है। 535 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org