Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 619
________________ उपाध्याय यशोविजय कहते हैं-मोक्ष नहीं है-इस प्रकार कहना असंबद्ध है, क्योंकि कारण कार्यरूप में बीज और अंकुर की तरह देह और कर्म के बीच में संबंध संतानरूप में अनादि है।" विशेषावश्यक भाष्य में भी इसके बारे में स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है-"शरीर एवं कर्म की संतान अनादि है, क्योंकि इन दोनों में कार्य कारणभाव है, बीज अंकुर की तरह।"64 जैसे बीज से अंकुर और अंकुर से बीज यह क्रम अनादि से आरम्भ है। इसलिए बीज और अंकुर की संतान अनादि है, उसी प्रकार जीव से कर्म और कर्म से जीव की उत्पत्ति का क्रम अनादिकाल से चला आ रहा है। इसलिए इन दोनों की संतान भी अनादि है। जिस प्रकार "बीज और अंकुर, मुर्गी और अंडे के सम्बन्ध की तरह स्वर्ण और मिट्टी का संयोग भी अनादि है, फिर भी अग्नि तापादि से, इस अनादि संयोग का भी नाश संभव है, उसी प्रकार जीव और कर्म का संयोग अनादि होने पर भी तप संयमादि उपायों द्वारा कर्म का नाश होता है अर्थात् कर्म आत्मा से अलग हो जाते हैं और जीव तथा कर्म का संबंध अनादि सांत बना सकते हैं।" "उपाध्यायजी ने कहा है कि अनादि सान्त की यह व्यवस्था भव्य जीवों के लिए है। अभव्य जीव और कर्म का सम्बन्ध आकार और आत्मा की तरह अनादि और अनन्त है।"65 इस प्रकार आत्मा कर्म बन्धन से मुक्त होकर अनन्त सुख को प्राप्त कर सकती है और यही अनन्त आत्मीय सुख मोक्ष कहलाता है। इस प्रकार तर्क या अनुमान से विचारने पर मोक्ष की सिद्धि में कोई बाधा नहीं आ सकती है। पुनः जीव और कर्म का सम्बन्ध परम्परा की दृष्टि से अनादि है, किन्तु किसी कर्म विशेष का. बन्ध अनादि नहीं है। कर्म विशेष किसी काल में बंधा है और अपनी स्थिति पूर्ण होने पर नष्ट हो जाता है। अतः नवीन कर्मों का बन्ध नहीं हो तो कर्म से मुक्ति संभव है। मोक्ष में सुख है या नहीं? _ जैन दर्शन के अनुसार मुक्त अवस्था में केवलज्ञान-त्रैकालिक, त्रैलोक्य पदार्थों के प्रत्यक्षीकरण का सामर्थ्य होता है। उस अवस्था में आत्मा अपने स्वभाव में रमण करता है फलतः उसे अपरिमित आनन्द की उपलब्धि होती है। मोक्ष में होने वाले सुख का वर्णन करते हुए जैन आगमों में कहा गया __जं देवाणं सोकरवं सव्वद्या पिंडियं अणंतगुण। ण य पाचइ मुतिसुहं अंताहि वग्गवग्गूहिं।। भौतिक सुखों की दृष्टि से देवतागण समस्त संसारी प्राणियों में उत्कृष्ट हैं-ऐसा प्रायः सभी भारतीय परम्पराएँ मानती हैं। जैन दर्शन का अभिमत है कि-अगणित देवताओं के भूतकालीन, वर्तमानिक और भविष्यतकालीन सुखों को यदि एक स्थान पर एकत्रित किया जाए तब भी वह मुक्ति में प्राप्त होने वाले सुख का अनन्तवां भाग भी नहीं हो पाता। "स्वर्ग में सुख होता है"-इस विषय में तो मतभेद नहीं है पर "मोक्ष में भी सुख होता है"-इस बात के कोई प्रमाण न होने से मोक्षसुख का अस्तित्व अमान्य है। इसका समाधान उपाध्याय यशोविजय ने शास्त्रवार्ता समुच्चय की टीका स्याद्वाद कल्पलता में किया है-मोक्ष सुख के लिए प्रेक्षावान विवेकी पुरुषों की प्रवृत्ति का होना निर्विवाद है, परन्तु मोक्ष में सुख का अस्तित्व न मानने पर यह प्रवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि विवेकी पुरुषों की प्रवृत्ति सुख प्राप्ति के लिए ही हुआ करती है। अतः मोक्ष में यदि 537 Jain Education International www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only

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