Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 625
________________ . सिद्ध होती है। अतः उपाध्यायजी महाराज कह रहे हैं कि अनुमति सिद्ध करने के लिए पक्षधर्मता होना आवश्यक नहीं है। प्रश्न-यहाँ वापस बौद्ध दार्शनिक प्रश्न उठता है कि यहाँ भी पक्षधर्मता घटित हो सकती है। जैसे कृतिका का उदयकाल (वर्तमानकाल) एवं शकट का उदयकाल (भविष्यकाल)-इन दोनों काल को संयोजित करने वाले व्यापक ऐसे महाकाल को पक्ष मान लें तो भविष्यकाल भी उस व्यापक काल में समाविष्ट हो सकता है। नभचन्द्र से लेकर जलचन्द्र तक के सम्पूर्ण क्षेत्र को संयोजित करने वाले आकाश को दो पक्ष मानने से पक्षधर्मता सिद्ध होती है। उत्तर-इन प्रश्न का समाधान करते हुए उपाध्यायजी कहते हैं कि वाह! क्या अद्भुत समन्वय दृष्टि है आपकी, जो इस तरह से पक्षधर्मता मानेंगे तो विश्व के सभी पदार्थों में पक्षधर्मता घटित हो सकती है। फिर भी अनगिनत अनुमान करते रहो। जैसे महल सफेद है, क्योंकि काग काला है। फिर तो ऐसे प्रसिद्ध अनुमानों में भी पक्षधर्मता घटित हो सकती है। महल एवं काग का आधार आकाश को पक्ष बनाने से सोल हो जाता है। फिर तो ऐसे अनुमानों को कौन रोक सकता है? ऐसी विपत्ति को स्वीकार न करनी पड़े, इसलिए पक्षधर्मता का आग्रह छोड़ना ही पड़ेगा। ऐसे-ऐसे कई तर्क-वितर्क बौद्ध दर्शन, नैयायिक दर्शन और उपाध्यायजी के बीच चला और उन सबका समाधान उपाध्यायजी ने अपने दार्शनिक ग्रंथ जैनतर्कभाषा में दिया है। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि बौद्ध सम्मत त्रैरूप्यता रहित हेतु भी साध्य को सिद्ध करने में समर्थ नहीं होता है। वैसे ही नैयायिकों ने हेतु को पंचरूप्य प्रतिपादित किया है। नैयायिक नैयायिकों के अनुसार हेतु के पाँच लक्षण स्वीकारे हैं1. पक्षसत्व, 2. सपक्षसत्व, 3. विपक्षाद्यावृत्ति, 4. अबाधितविषयत्व, 5. असत्प्रतिपक्षत्व। नैयायिकों ने हेतु को पंचरूप्य प्रतिपादित किया। उनमें से तीन का निरसन उपर्युक्त प्रसंग में हो चुका है। उसके अतिरिक्त दो रूप हैं-अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व। अबाधित विषय का अर्थ है-हेतु का साध्य किसी प्रमाण से बाधित नहीं होना चाहिए। जैसे अग्नि ठण्डी होती है, क्योंकि द्रव्य है जैसे जल। इसे अनुमान में अग्नि का ठण्डापन साध्य है किन्तु यह प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित है। अतः यह बाधित विषय है। असत्प्रतिपक्ष का अर्थ है-जिनका कोई प्रतिपक्ष न हो। कोई हेतु अपने विरोधी हेतु में बाधित नहीं होना चाहिए। जैसे शब्द अनित्य है, क्योंकि उसमें नित्यता की उपलब्धि नहीं होती। दूसरे ने कहा शब्द नित्य है, क्योंकि उसकी अनित्यता की उपलब्धि नहीं होती। इस हेतु से प्रथम हेतु बाधित हो जाने के कारण सत्प्रतिपक्ष है। जिस हेतु में यह दोष न हो, वह असत्प्रतिपक्ष है। जैन दार्शनिकों का यह अभिमत है कि जो हेतु बाधितविषय या सत्प्रतिपक्ष वाला होता है, उसमें अविनाभाव भी नहीं हो सकता। अतएव अविनाभाव के हेतु का लक्षण स्वीकार करने से ही ये दोनों लक्षण ग्रहण हो जाते हैं। कहा भी है कि बाधाविना भावयोर्विरोधात बाधा और अविनाभाव का 543 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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