Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ निष्कर्ष निष्कर्ष रूप में आत्मा के साथ कर्म का अनादि काल का सम्बन्ध है और वही संसार परिभ्रमण का हेतु है। अतः कर्मक्षय के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। प्रमाण के सन्दर्भ में प्रत्येक दर्शन में प्रमाण के विषय में विशद विवरण मिलता है, क्योंकि प्रमेय की प्रामाणिकता के लिए प्रमाण अत्यन्त उपादेय माना गया है। उसके बिना प्रमेय की सिद्धि संभव नहीं है, लेकिन प्रत्येक दर्शन की अपनी-अपनी भिन्न मान्यताएँ होने के कारण प्रमाणों की संख्या में भी भेद स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उपाध्याय यशोविजय ने अन्य दर्शन की विभिन्न मान्यताओं का उल्लेख अपने दर्शन ग्रंथ में किया है। जो प्रमा का साधन है, उसे प्रमाण कहते हैं। 'प्रमाकरणं प्रमाणम्'78 प्रमाण की यह परिभाषा सभी भारतीय दार्शनिक परम्पराओं को स्वीकार है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से भी 'प्रमीयतेऽनेन इति प्रमाणम्79 सर्वमान्य है। फिर भी भिन्न-भिन्न दार्शनिकों के प्रमाण में अनेक लक्षण रहे हैं। जिज्ञासा यह होती है कि प्रमाण सामान्य की सर्व मान्य परिभाषा उपलब्ध है, फिर प्रमाण में भिन्न-भिन्न लक्षणों की रचना क्यों की गई? समाधान यह है कि प्रमाण प्रमा का कारण है और प्रमा के स्वरूप के विषय में दार्शनिक जगत् में मतभेद है। सभी दार्शनिकों ने अपनी परम्परा के अनुरूप यथार्थज्ञान की व्याख्या दी है। इसी आधार पर प्रमाण लक्षण में भी भिन्नता आ जाती है। दूसरी बात यह है कि प्रमेय भी भिन्न-भिन्न है। विशिष्ट प्रमेयों को सिद्ध करने के लिए प्रमाण लक्षण भी उनके अनुरूप ही व्यक्त किये गए हैं। यहाँ भिन्न-भिन्न दर्शनों के प्रमाण लक्षणों की संक्षिप्त चर्चा की जा रही है। बौद्ध मत बौद्ध मत में प्रमेय दो प्रकार का माना गया है-सामान्य और विशेष। इस आधार पर दिगनाग के प्रमाण के भी दो प्रकार स्वीकार किये गए हैं-प्रत्यक्ष और अनुमान। अविसंवादि ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। इसमें सौगत के मत से अविसंवादिक ज्ञान ही प्रमाण की कोटि में आता है। जिस ज्ञान के द्वारा अर्थ की प्राप्ति नहीं होती, वह अविसंवादि नहीं हो सकता, जैसे कि केशीण्डक ज्ञान। स्व विषय का उपदर्शन कराने में दो ही प्रमाण सक्षम हैं, अतः बौद्धदर्शन दो प्रमाणों को ही मान्यता प्रदान करता है प्रमाणे द्वै च विज्ञेये तथा सौगतदर्शने। प्रत्यक्षमनुमानं च सम्यग्ज्ञानं द्विधा यतः / / बौद्धदर्शन में दो प्रमाण हैं-प्रत्यक्ष और अनुमान। चूँकि सम्यग्ज्ञान दो ही प्रकार का है, अतः प्रमाण दो ही हो सकते हैं, अधिक नहीं। इससे यह सूचित होता है कि चार्वाक द्वारा निर्धारित प्रमाण प्रत्यक्ष रूप एक संख्या, नैयायिक आदि द्वारा मानी गई प्रमाण की प्रत्यक्ष अनुमान, आगम और उपमान रूप से तीन चार आदि संख्याएँ इष्ट नहीं हैं, क्योंकि उनकी यह निश्चित धारणा है कि विसंवादरहित सच्चा ज्ञान दो ही प्रकार का है। अतः प्रमाण भी दो ही हो सकते हैं। आगम, उपमान, अर्थापति तथा अभाव आदि सभी का अन्तर्भाव प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण कर लेते हैं। 541 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org