Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 630
________________ नयेन सङ्ग्रहे! णैवमूनुस्सूत्रोषजीविना। सच्चिदानंदस्वरूपत्व ब्रह्म! णो व्यवतिष्ठते / / अर्थात् सत् चित् आनन्दस्वरूप ब्रह्मत्व शुद्धात्मा है, अर्थात् आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय है, सच्चिदानंद स्वरूप है। परस्पर अनुविद्ध सत्व, ज्ञान और सुखमय आत्मा-यही परमात्मा है। सर्वज्ञ सिद्धि में भी कहा गया है कि स्वगते नैव सर्वज्ञ सर्वज्ञत्वेन वर्तते। न य परागते नापि स स इति उपद्यते।।100 यह सर्वज्ञ सर्वज्ञपना से ही संवर्धित है, इसमें कोई बाधा नहीं है, निराबाद्य सर्वज्ञपना सदा सिद्ध हुआ है। ईश्वरवादी ईश्वर को सर्वज्ञ स्वीकारते हैं और सर्वोपरि ईश्वरत्व की सिद्धि करते हैं। वह ईश्वर अवतार रूप से अवतरित होकर सर्वज्ञता की सर्व सिद्धि करता है। उस ईश्वर में सर्वज्ञता स्वतः सिद्ध स्वीकारी हुई भक्तजन देखते हैं। ईश्वरवादिता सर्वज्ञता से संपृक्त है परन्तु जैन दर्शन सर्वज्ञत्व को तीर्थंकरत्व में प्रतिष्ठित मानता है, वैसे ही ईश्वरवादी आम्नाय ईश्वर में सर्वत्व के संदर्शन कर लेता है। इसी प्रकार सर्वज्ञत्व चिरन्तन शास्त्रगुम्फित ज्ञानगर्भित मान्य रहा है। आचार्य कुंदकुंद ने नियमसार में शुद्धोपयोग अधिकार में सर्वज्ञता के सम्बन्ध में कहा है, वे व्यवहारनय की अपेक्षा से समस्त लोकालोक के सभी पदार्थों को सहज भाव से देखते हैं और जानते हैं, किन्तु निश्चयनय की अपेक्षा से तो वे अपने आपके स्वरूप को देखते हैं और जानते हैं। परमात्मप्रकाश में उपाध्यायजी ने कहा है कि जो आत्मा के निर्मलतम सर्वज्ञ स्वरूप का चिन्तन करता है, वह परमात्मा को प्राप्त करता है।102 ..' जैसे-जैसे आम्नाय तीर्थकर में सर्वज्ञ की स्थापना करता है, वैसे ही बौद्ध परम्परा बुद्ध को सर्वज्ञ कहती है। बौद्ध कोषकार अमरसिंह ने 'सर्वज्ञ सुगतः बुद्ध' ऐसा संग्रह किया है। अतः बौद्ध परम्परा में सर्वज्ञता की सिद्धि स्वतः ही स्पष्ट है। प्रत्येक आम्नाय ने अपने-अपने इष्ट देव को सर्वज्ञता की कोटि में रखा है, अन्य को नहीं। जैनों के तीर्थकरों में बौद्ध की सर्वज्ञता दृष्टि क्षीण है। जैनों की सर्वज्ञता दृष्टि तथागत बुद्ध में स्थिर नहीं है, अतः यह विषमवाद आम्नायगत सर्वत्र मिलेगा। परन्तु उपाध्यायजी ने सर्वज्ञ को सर्वदर्शी कर अपनी लेखनी को एवं अपने आपको धन्य बनाया है। यह उनका दार्शनिक चिन्तन दिव्यदर्शी सिद्ध हुआ है। सांख्य दर्शन ईश्वरवाद पर इतना तत्पर नहीं है। वह कभी-कभी निरीश्वरवाद की कल्पना करता आया है अतः सर्वज्ञता को उन्होंने चर्चित ही नहीं किया। वैसे ही चार्वाक दर्शन सर्वज्ञ चर्चा से मुक्त है। उपाध्याय यशोविजय सर्वज्ञ (परमात्मा) स्वरूप का विवेचन करते हुए अध्यात्मसार में कहते हैं ज्ञान केवलसतं योग निरोधः समग्रकर्महति। सिद्धि निवासश्च यदा परमात्मा स्यातदा व्यक्त।।103 जब केवलज्ञान होता है तब अरिहंत पद प्राप्त होता है। ऐसा उपाध्यायजी का कहना है। 548 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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