Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ सांख्यदर्शन की समीक्षा कपिल का दर्शन सांख्य मत कहलाता है। सांख्य दर्शन में पुरुष को ही आत्मा के रूप में स्वीकारा गया है। इनकी मान्यता है कि पुरुष (आत्मा) कर्म का कर्ता और भोक्ता नहीं है। वह एकान्त नित्य तथा निरंजन है। वह प्रवृत्ति आदि 24 तत्त्वों से भिन्न है। आत्मा सत्वादि गुणों से सर्वथा रहित है। प्रकृति के 25 तत्त्वों में एक मुख्य तत्त्व बुद्धि है और वे बुद्धि को ही कर्वी, भोक्त्री और नित्य मानते हैं। __ हम व्यवहार में स्पष्ट देखते हैं कि जीव स्वयं कर्ता और भोक्ता है, यानी कृति और चैतन्य का अधिकारण स्थान एक ही है, यह व्यक्त है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है ___ अप्पा कत्ता विकत्ता य सुहाण य दुहाण य। अर्थात् आत्मा ही सुखों और दुःखों का कर्ता और भोक्ता है। यह भी कहा गया है-सिर काटने वाला शत्रु भी उतना ही उपकार नहीं करता, जितना दुराचरण में प्रवृत्त अपनी आत्मा करती है।" उपाध्याय यशोविजय कहते हैं बुद्धिः की च भोक्त्री च नित्या चेन्नास्तिनिर्वृतिः। अनित्या चेन्न संसार प्राग्धर्मदेरयोगत।। अर्थात् बुद्धि जो कर्ता, भोक्ता और नित्य हो, तो मोक्ष नहीं हो सकता है और जो बुद्धि अनित्य . . . हो तो पूर्वधर्म के अयोग से संसार ही नहीं रहेगा। इस प्रकार बुद्धि को नित्य मानें या अनित्य-दोनों प्रकार से संसार और उसमें से मुक्ति की बात लागू नहीं होती है। कर्ता, भोक्ता और नित्यता को आत्मा में मानें तो ही संसार और मोक्ष की व्यवस्था बराबर घट सकती है। सांख्यवादी प्रकृति को जड़ मानते हैं और प्रकृति का मुख्य परिणमन बुद्धि है। जो वे प्रकृति को नित्य मानें तो उसमें रहे हुए धर्म-अधर्म आदि को भी नित्यरूप में स्वीकारना पड़ेगा। इसी बात का समाध न करते हुए उपाध्याय यशोविजय कहते हैं प्रकृतावेव धर्मादिस्वीकारे बुद्धिरेव का। सुवचश्च घटादौ स्यादीदुग्धर्मान्वयस्तथा।। अर्थात् जो धर्मादि को स्वीकार करे तो फिर बुद्धि की आवश्यकता नहीं रहती है। यदि प्रकृति को जड़ मानते हैं और उसमें धर्मादि को स्वीकार करते हों तो जड़ घट में भी धर्मादि रह सकते हैं-यह स्वीकारना पड़ेगा। सांख्य दार्शनिक कर्तृत्व और भोक्तृत्व-ये दो बुद्धि के गुण बताते हैं। तब उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि कृति और भोग को बुद्धिगुण मानते हो तो फिर बंध और मोक्ष भी बुद्धि का ही होगा, आत्मा का नहीं, तो फिर कपिल मुनि जो बंध और मोक्ष आत्मा में घटाते हैं, वह मिथ्या होगा। इस प्रकार कर्तापण तथा भोक्तापण की बुद्धि आश्रित मानने पर पुरुष के बंध और मोक्ष की सिद्धि नहीं होगी। यदि पुरुष या आत्मा का बंधन नहीं, तो फिर मुक्ति की बात किस प्रकार होगी? 527 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org