________________ के अस्तित्व में सन्देह किया जा सकता है, परन्तु सन्देहकर्ता में संदेह करना तो सम्भव नहीं है। संदेह का अस्तित्व संदेह से परे है। सन्देह कारक विचार करता है और विचारक के अभाव में विचार नहीं हो सकता। मैं विचार करता हूँ, मैं हूँ, इस प्रकार से भी आत्मा का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है। आचार्य शंकर ब्रह्मसूत्र भाष्य में ऐसे ही तर्क देते हुए कहते हैं-जो निरसन कर रहा है, वही तो उसका स्वरूप है।" आत्मा के अस्तित्व के लिए स्वतः बोध के आचार्य शंकर भी एक प्रबल तर्क के रूप में स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि "सभी के आत्मा के अस्तित्व में भरपूर विश्वास है। कोई भी ऐसा नहीं है, जो यह सोचता हो कि मैं नहीं हूँ।"18 चार्वाक दर्शन शरीर को ही आत्मा मानते हैं, तो प्रश्न यह उठता है कि बालक जब युवा होता है, तब वही शरीर नहीं रहता। यह शरीर युवा का शरीर हो जाता है। अतः शरीर के बदलने पर बाल्यकाल के संस्मरण युवा को नहीं होना चाहिए। परन्तु अनुभव यह कहता है कि बाल्यकाल के संस्मरण युवा को होते हैं। चार्वाकवादी कहते हैं कि स्मरण हो तो भी आत्मा अलग-अलग हो सकती है, किन्तु ऐसा मानने से फ्रूट एक व्यक्ति खाए और स्वाद दूसरा अनुभव करे, यह आपत्ति आयेगी।" यही बात अध्यात्मसार में उपाध्याय यशोविजय ने की है। इसलिए बाल्यावस्था, यौवानावस्था और वृद्धावस्था-तीनों में एक ही आत्मा स्वीकार करना पड़ेगा। अतः कहना उचित होगा कि शरीर आत्मा नहीं है। चार्वाकवादी कहते हैं कि जीव शब्द शरीर के लिए प्रयुक्त हुआ है। इस पर उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि शुद्धं व्युत्पतिमज्जीवपदं सार्थ घटादिवत। तदर्थश्च शरीरं ना पर्यायपदभेदतः।।20।। अर्थात् घटादि की तरह जीव पद शुद्ध व्युत्पत्ति वाला और सार्थक है तथा जीव और शरीर शब्द की पर्याएँ पृथक्-पृथक् होने से जीव पद का अर्थ शरीर नहीं माना जा सकता है। अजीवत्, जीवति, जीविष्यति जीया, जो जीता है और जो जीएगा वह जीव कहलाता है। जीव शब्द के पर्याय हैं-जन्तु, प्राणी, सत्व, आत्मा, चेतन आदि, जबकि शरीर के पर्याय हैं-देह, तन, वपु, काया, कलेवर आदि। इसका अर्थ यह हुआ कि जीव और शरीर-ये दो पद एक-दूसरे के पर्यायरूप नहीं हैं। इसके बाद शरीर और जीव के लक्षण भी अलग-अलग हैं। अतः दोनों को प्रथम मानना चाहिए। इस प्रकार चार्वाकदर्शन तर्क और अनुभव की कसौटी पर खड़ा नहीं रह सकता है। शरीर से भिन्न चैतन्य एक शक्ति है और यह चैतन्यशक्ति ही आत्मा है। बौद्धदर्शन के मत की समीक्षा बौद्ध अपने को अनात्मवादी कहते हैं। वे आत्मा के अस्तित्व को सत्य नहीं, काल्पनिक संज्ञा मात्र कहते हैं। उनकी मान्यता है कि प्रतिक्षण आत्मा जन्म लेती है और दूसरे क्षण वह नष्ट हो जाती है। इस प्रकार उत्पाद और विनाश की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। सतत चलते रहने से नित्यता का आभास होता है, परन्तु आत्मा नित्य नहीं है, क्योंकि नित्यत्व में अर्थक्रिया नहीं घटती है। उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि मिथ्यात्ववृद्धिकृन्नूनं तदेपदपि दर्शनम्। क्षणिके कृतहानिर्यतथात्मन्यकृतागमः।।" 525 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org