Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ . उपाध्याय यशोविजय भी योगनिष्ठ बनकर योगदर्शन के विवेचनकार विद्वान् हुए हैं। उनके स्वयं के योगावतार बत्रीशी, योगविंशिका टीका, आठ दृष्टि की सज्झाय, आदि ग्रंथ उपलब्ध हो रहे हैं, क्योंकि ज्ञाता ही ज्ञेय को ज्ञापित करता है और उसकी ज्ञेयता के गौरव का उदाहरण देती ग्रंथ रूप में गुम्फित हो जाती है। ऐसी ज्ञान की ग्रंथमालाएँ अन्य दर्शनिकों ने भी गुंथी हैं, जिसमें महर्षि पतंजलि को प्रमुखता मिली है। महर्षि व्यास ने भी अनेक प्रसंगों में योग माहात्म्य और महत्त्व प्रदर्शित कर प्रशंसित बनाया है। योग के विषय को परिचित कराने में आचार्य हरिभद्र के बाद उपाध्याय यशोविजय को विशेष योगदान मिला है। इन्होंने अपने ग्रंथों में अन्य दर्शनकारों संबंधी मान्यता भी व्यक्त की है, जो हमें अनेक ग्रंथों में स्थान-स्थान पर मिलती है। जैसे कि उपाध्याय यशोविजय ने प्रणिधानादि आदि योग के पाँच भेद बताये हैं। उन्हीं को अन्य दर्शनकारों ने भिन्न-भिन्न नामों से उल्लिखित किये हैं तात्विकोऽतात्विकश्चायं सानुबन्ध स्तथापरः। सास्त्रवोऽनास्त्रवश्चेति संज्ञाभेदेन कीर्तितः।।" अर्थात् तात्विक योग, अतात्विक योग, सानुबंध योग, निरनुबंधयोग, साश्रव योग, अनानव योग-इस प्रकार अन्य दर्शनकार संज्ञाभेद से योग को भिन्न-भिन्न नाम से पुकारते हैं। योग का अधिकारी श्रीमान गोपेन्द्र योगीराज कहते हैं कि योगमार्ग में कौन प्रवेश कर सकता है, क्योंकि सभी आत्मा को योग में प्रवेश पाना शक्य नहीं है, अतः जब तक सर्वथा पुरुष प्रवृत्ति के अधिकार से दूर नहीं होता, तब तक पुरुष को यथार्थ तत्त्वमार्ग में प्रवेश करने की इच्छा जागृत नहीं होती। यह जैन मत की पुष्टि में ही उल्लेख किया है। ... उपाध्याय यशोविजय ने भी निश्चय नय से सर्वविरती तथा देशविरती वाली आत्मा को ही योग का अधिकारी माना है। अपुर्नबन्धक एवं अविरत सम्यग्दृष्टि-ऐसे दो प्रकार के जीवों में धर्मक्रिया निश्चयनय से योग का बीज है एवं व्यवहारनय से योग है। (अर्थात् निश्चयनय से तत्त्वग्राही है एवं व्यवहारनय से उपचारग्राही है।) सकृबंधक तथा द्विबंधक ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों में जो स्थानादि योगों की क्रिया है, वो योग नहीं है क्योंकि वो अशुद्ध भूमिका है किन्तु योग का आभास मात्र है तथा मार्गानुसारी में भी योग का बीज तो माना है। यही बात उपाध्यायजी ने योगविंशिका टीका अनुवाद में बताई है। यही बात श्रीमान् गोपेन्द्र तथा अन्य विद्वान् भी स्वीकार करते हैं एवं लक्षणयुक्तस्य प्रारम्भादेव चापरैः। योग उक्तोऽस्य विध्वगर्गोपेन्द्रेण यथोदितम् / / पूर्व कथित अवग्रह, ईहा, अपाय, धारणा अर्थात् वह वस्तु इस प्रकार कैसे संभव हो सकती है। वैसे तर्क-बल से योग्य-अयोग्य का विचार जिस जीवात्मा को होता है, वह विचार युक्त लक्षण गुण से संयुक्त जो होता है, वह ईहा कहलाता है। उस जीवात्मा को पूर्वसेवा, देवगुरु भक्ति, तप-जप व्रतपालन आदि प्रारम्भ से ही होते हैं। उस जीवात्मा को कर्मफल का जितने अंश में नाश होता है, उतने अंश में सम्यग्-मार्गानुसारीत्व होता है और उतने अंश में मोक्षमार्ग प्रवृत्त होता है। ऐसा योगशास्त्र के रचनाकार योगी श्रीमान् गोपेन्द्र भगवान तथा अन्य विद्वान् भी उनका कथन स्वीकार करते हैं। 530 36 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org