Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ . यदि पुरुष (आत्मा) एकान्त नित्य, निर्विकारी, अकर्ता, अभोक्ता, शुद्ध हो, तो फिर बंध और मोक्ष किस प्रकार घटित होता है? इसके उत्तर में सांख्यदर्शन कहते हैं कि वस्तुतः सुबुद्धि का ही बंध और मोक्ष है, परन्तु उसका उपचार पुरुष में करते हैं, परन्तु यह बात तर्कसंगत नहीं है। इनका समाधान करते हुए उपाध्याय यशोविजय ने कहा है एतस्य चोपचारत्वे मोक्षशास्त्रं वृथाऽखिलम्। अन्यस्य हि विमोक्षार्थ न कोऽप्यन्य प्रवर्तते।।" क्योंकि परिश्रम एक करे और फल दूसरा भोगे। स्वयं के परिश्रम से दूसरे को मोक्ष मिले, तो ऐसा श्रम, अर्थात् संयम, त्याग-तपश्चर्या आदि कौन करेगा? इस प्रकार हो, तो पूरा मोक्षशास्त्र ही व्यर्थ बन जाएगा। संसार में सुख-दुःख प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। जीव शुभ या अशुभ कार्य करते हुए दिखाई देता है, यानी जीव शुभ-अशुभ कर्म बांधता है और उसी के अनुसार फल भोगता है। अतः आत्मा ही कर्म की कर्ता तथा भोक्ता भी है। वह एकान्त नित्य भी है और एकान्त अनित्य भी नहीं है। भगवती सूत्र में भगवान महावीर ने गौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए आत्मा को शाश्वत और अशाश्वत दोनों कहा है जीवाणं भंते! किं सासया? असासया? गोयमा! जीव सियसासया, सिय असासया।। से केणठेणं भंते! एवं तुच्चइ-जीव। सियसायसा? सियअसासया? गोयम! द्रव्वद्रयाएँ सासया, भावट्ठयाए असासया। अर्थात् भगवन्! जीव शाश्वत है या अशाश्वत? गौतम! जीव शाश्वत भी है और अशाश्वत भी। भगवन्! यह कैसे कहा गया कि जीव नित्य भी है और अनित्य भी? गौतम! द्रव्य की अपेक्षा से जीव नित्य है और भाव की अपेक्षा से अनित्य। आत्मा के प्रकार जैन धर्म दर्शन में आध्यात्मिक पूर्णता, अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति को साधना का अन्तिम लक्ष्य माना जाता है। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधक को साधना की विभिन्न श्रेणियों से गुजरना पड़ता है। डॉ. सागरमलजी जैन का कहना है-"विकास तो एक मध्यावस्था है, उसके एक ओर अविकास की अवस्था तथा दूसरी ओर पूर्णता की अवस्था है।" इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए पूर्ववर्ती जैनचार्यों ने तथा उपाध्याय यशोविजय ने अपने ग्रन्थ में आत्मा की निम्न तीन अवस्थाओं का विवेचन किया है 1. बहिरात्मा-आत्मा के अविकास की अवस्था। 2. अन्तरात्मा-आत्मा की विकासमान अवस्था। 3. परमात्मा-आत्मा की विकसित अवस्था। उपाध्यायजी ने बहिरात्मा के चार प्रकार लक्षण बताए हैं1. विषय कषाय का आवेश 2. तत्त्वों पर अश्रद्धा 528 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org