Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ एवं अतीन्द्रिय ज्ञान-इन सब साधनों से ज्ञात होने वाला प्रमेय वास्तविक है। इन साधनों से प्राप्त ज्ञान में स्पष्टता-अस्पष्टता, न्यूनाधिकता हो सकती है किन्तु इनसे ज्ञात पदार्थों का अपलाप नहीं किया जा सकता अर्थात् सत् पारमार्थिक, सांवृत्तिक के भेदों में विभक्त नहीं किया जा सकता है। द्रव्य एवं पर्याय, नित्यता एवं अनित्यता-ये सब वस्तु के स्वरूप हैं। इनमें से किसी एक का अपलाप करना जैन दर्शन के अनुसार वस्तुसत्य का अपलाप करना है। जैन के अनुसार सत् अर्थात् वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। संक्षेप में शास्त्रकारों का श्रम इस जगत् को सत्वाद स्वरूप से ही निरूपण करने में रहा है। -वैदिक जगत् में सत् को ही ब्रह्म स्वरूप से स्वीकृत किया गया है-'सदविशिष्ट मेव सर्वं / ' -बौद्ध वाङ्मय में सत् को अर्थक्रियाकारक कहा गया है। -न्याय दर्शन में सत् को सत्ता नामक पर-सामान्य से लक्षित किया गया है। -सांख्यदर्शन के प्रथम आचार्य कपिल ने सत् को चैतन्यात्मक घोषित किया है। सत्व को त्रिगुणात्मक भी कहा है। -उपनिषदों की परिभाषा में सत् सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर और महान् से भी महत्तर निर्दिष्ट किया * गया है। -ऋग्वेदकालीन सत् को इतना महत्त्व दिया है कि उसका भी अस्तित्व है, क्योंकि नामोल्लेख ही अस्तित्व को सिद्ध करता है। -पुरातन पुराणों के प्रखर वक्ता श्री व्यास ने सत् को नित्य और अविनाशी कहा है। -आचार्य हेमचन्द्राचार्य ने उपमेय भाव से सत् विषय को आलोकित किया है और साथ में युक्तिसंगत एवं उचित है। जिस प्रकार एक ही दूध दही, नवनीत और घी के स्वरूप को धारण करता है, वैसे ही एक ही सत् अनेक उत्पादात्मक, व्ययात्मक एवं ध्रुवात्मक रूप से परिणत होता है। इसी का सार महोपाध्याय यशोविजय ने द्रव्य-गुण पर्याय के रास में प्रस्तुत किया है। घट मुकुट सुवर्णं अर्थिआ, व्यय उत्पति थित्ति पेरवंत रे। निजरूपई होवई हेमथी दुःख हर्ष उपेक्षावंत रे।। दुग्ध दधि भुंजइ नही, नवि दूध दधिव्रत खाई रे। नवि दोइं अगोरसवत जिमई तिणि तियलक्षण जग थाई।।" महोपाध्याय यशोविजयकृत नयरहस्य में अन्यदर्शनकृत सत् का लक्षण इस प्रकार संदर्शित है सदाविशिष्टमेव सर्वं / / / इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सत् का अस्तित्व इतिहास मान्य है। समाज स्वीकार्य है। और सभी दार्शनिकों का स्पष्ट सम्बोध है कि सत् एक अस्तित्ववान् सत्व है और वह तत्त्व भी है। सत्व क्यों है, कि वह आत्मवाद से अभिन्न है और तत्त्व क्यों है, कि वह दार्शनिक विचारश्रेणिका नवनीत पीयूष है। सत्वरहित चिंतन दार्शनिक जगत् में स्थान प्राप्त नहीं कर सकता है। इसलिए रासम्मान सत्व को ईश्वरवाद से पृथक् नहीं बनाया जा सकता। 522 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org