________________ परमात्म प्रकाश की भूमिका में डॉ. ए.एन. उपाध्ये ने उल्लेख किया है कि साधनात्मक दृष्टि से जैन तीर्थंकर ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर इत्यादि विश्व के महान् रहस्यदर्शियों में हुए हैं। प्रो. आर.डी. रानाडे ने भी जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए ठीक ही कहा है कि ये एक भिन्न ही प्रकार के गूढ़वादी थे। उनकी अपने शरीर के प्रति अत्यन्त उदासीनता उनके आत्म-साक्षात्कार को प्रमाणित करती है। उन्होंने ऋषभदेव को उच्चकोटि का साधक और रहस्यदर्शी माना है। ऋषभदेव के तरह ही अन्य तीर्थंकरों के द्वारा भी इसी साधना पद्धति का अनुसरण किया गया। कुन्दकुन्द के अष्टपाहुड की भूमिका में श्री जगतप्रसाद ने यह निर्देश किया है कि जैनवाद का आधार रहस्यानुभूति है। जैन रहस्य-द्रष्टाओं की रहस्यानुभूति की झलक सर्वप्रथम हमें प्राचीनतम जैनागम आचारांग में मिलती है। उसमें कहा गया है सव्वे सराणियति। तक्का जत्थ ण विज्जइ। मई तत्थ णं गाहिया। औए अप्पतिट्ठस्स खेयण्णे।।56 अर्थात् वहाँ से सभी स्वर लौट जाते हैं। परम तत्त्व का स्वरूप शब्दों के द्वारा प्रतिपाद्य नहीं है। वह तर्कगम्य भी नहीं है। वह बुद्धि के द्वारा ग्राह्य नहीं है। वाणी वहाँ मौन हो जाती है। वह अकेला शरीर रहित और ज्ञाता है। इसी तरह रहस्यात्मकता का संकेत आचारांग के निम्न सूत्र में भी दृष्टिगत होता है जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ। जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ।।।57 अर्थात जो एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जानता है, वह एक को जानता है। जे एगं नामे से बहु नामे, जे बहुं नामे, से एगं नामे।। अर्थात् जो एक को वशीभूत कर लेता है, वह बहुतों को वश में कर लेता है। जो बहुतों को वश में कर लेते हैं, वह एक को वश में कर लेता है। विशेषावश्यक भाष्य में भी आचारांग सूत्र की भांति रहस्यात्मकता का निर्देश मिलता है। उसमें कहा गया है एककं जाणं सव्वं जाणति सव्वं च जाणमेगंति। इय सव्वं जाणंतो णाउगारं सव्व धा गुणति।। इसी भाव की पुनरावृत्ति प्रमाणनय तत्त्वलोकालंकार में भी हुई है। उसमें कहा है ___एको भावः सर्वथा येन द्रष्टः सर्वे भावा। सर्वथा तेन द्रष्टाः। सर्वे भाषाः सर्वथा येन द्रष्टाः एको भाव। सर्वथा तेन द्रष्टः / / 160 जिसने एक पदार्थ को सब प्रकार से देख लिया है, उसने सब पदार्थों को सब प्रकार से देख लिया है तथा जिसने सब पदार्थों को सब प्रकार से जान लिया है, उसने एक पदार्थ को सब प्रकार से जान लिया है। इसी से मिलती-जुलती रहस्यानुभूति आचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार में भी 499 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org