Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 591
________________ आश्रव का स्वरूप हेय है तो हृदय के भाव की धारा भी हेयता के अनुरूप होनी चाहिए अर्थात् आश्रव के प्रति अनास्था, अरुचि एवं तिरस्कार भरा व्यवहार होना चाहिए। आश्रव में आत्मा को भय होना चाहिए। जहाँ आश्रव की बात आये तब अकर्तव्यता भाव, तिरस्कार आना, ऐसे भाव का आश्रव का ज्ञान वो परिणतिज्ञान है। उनके वक्त तत्त्वसंवेदन के ज्ञान की प्रवृत्ति में गहराई में जाने की बात आती है अर्थात् आश्रव के प्रति भय, तिरस्कार का भाव आया था पर आश्रव का त्याग नहीं हुआ था। आत्मा उसके तद्दन अनासक्त एवं अलिप्त नहीं बनी थी तब तत्त्व संवेदन में तो आश्रव के प्रति सहज ही अनासक्त भाव आता है, उसके अलिप्त रहने की भावना आती है अर्थात् अब अंतर से भी आश्रवमय प्रवृत्ति नहीं होती किन्तु सर्वथा विरतीभाव आता है, यह समय जीवन में बहुत ही उपयोगी है। यह परिस्थिति मानव जीवन में ही शक्य है। उनके बिना सिर्फ प्रतिभास ज्ञान से तो कुछ भी आत्महित नहीं होता है। वैसे तो अभव्य भी नव पूर्व तक का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। इतना प्रातिभासित ज्ञान मात्र से क्या परिणाम एवं संवेदन के लक्ष बिना भी ऐतिहासिक दृष्टि हृदय में संवेगजन्य बोध नहीं पाती है। तो फिर संसार से अलिप्त एवं भिन्न होने की तो बात ही क्या? आज के भौतिकवाद के जोर पर चल रहा साम्यवाद को चलाने के लिए ऋषि-महर्षियों के तर्क-युक्तिपूर्ण गम्भीर वचनों पर श्रद्धावाद को मधु विकसित करने की आवश्यकता है। वरना आपका यह बुद्धिवादी वातावरण जैन एवं आर्यप्रजा को संस्कृति के विनाश की तरफ ले जा रहा है। ___ उपाध्यायजी के रहस्य अंकित ग्रंथों की रहस्य भरी बातें सुनकर परस्पर चिंतन, मनन करके उनमें शस्त्ररत्नों में से अपने जीवन में नक्कर तत्त्वदृष्टि, केवल परिणति संवेदन ज्ञान एवं संवेग . विरागादि से परिपुष्ट आध्यात्मिकता की उच्च कक्षा पर पहुंचकर आंतरात्मदशा के उल्लसित अभ्यास कर परमात्मदशा को प्राप्त करने का प्रयत्न करे, यही अन्तिम लक्ष्य को पाने के लिए प्रयत्न जारी रखे। 1. सन्दर्भ सूची साहित्य कोश, पृ. 625 2. (क) ऋग्वेद, 2/1/152/3; वही, 3/4/158/3; वही, 4/5/47/5 (ख) अथर्ववेद, 9/9/5 (क) ईशोपनिषद्, 4-5; (ख) कठोपनिषद्, 1/2/20; (ग) श्वेताश्वतर उपनिषद्, 3/19-20 धम्मपद, पकिण्णवग्गो 4-6, चर्चापद-2, 11, 33 1 सर्वधातुभ्योऽसुन (उणादि सूत्र, चतुर्थ पाद) तत्रभवः दिगादिभ्यो यत्, पाणिनि सूत्र, 4/3/53-54 अभिधान राजेन्द्रकोश, खण्ड-6, पृ. 493 पाइअ-लच्छी नाममाला कोश, गाथा-271 गुह्ये रहस्य.....। अभिधान चिंतामणि कोश, 742 पाइअ-सह-महण्णवो, पृ. 708 धवला, 1.1.1, 1.44.4 अमरकोश, 2/8, 22-23; एवं अभिधान चिंतामणिकोश, 741 12. 511 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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