Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 588
________________ का रेचक एवं अंतर भावरूपी-भावप्राण का पूरक लेने का है। ऐसे-ऐसे रहस्यों को खोलकर पूज्य उपाध्याय महाराज ने जैन शासन की विशिष्टता तो क्या पर उन्होंने तो सर्वोपरिता साबित की है। द्वात्रिंशत्-द्वात्रिंशिका नामक ग्रंथ में योगदृष्टि आदि अनेक ग्रंथों के दोहन का संग्रह ग्रन्थ है। पू. उपाध्याय महाराज ने 'पातंजल योगदर्शन' पर जो समीक्षा की है, वह जैन दर्शन की विशिष्टता को बताता है। योगदर्शनकार योग की व्याख्या चित्तवृत्तिनिरोध ऐसी की है। उपाध्याय महाराज इसमें कुछ परिवर्तन करके कहा है-योग 'क्लिष्ट' चित्तवृत्तिनिरोध, यह बात भी सही है। सामान्य से देखें तो चित्तवृत्ति का निरोध ही उचित है पर वह अन्तिम योग की कक्षा में ही घटित होता है पर पूर्व कक्षा के योगों में वो नहीं घटता, क्योंकि वहां शुभ चित्तवृत्ति की गति गतिमान ही होती है। यह बात योगदर्शनकार को भी मान्य है। नियम आदि योग के अंग उतनी कक्षा के योगों को समान होता है, वहाँ चित्तवृत्ति सम्पूर्ण स्थगित या विरुद्ध नहीं है किन्तु इतना ही है कि जो चित्तवृत्ति चल रही है, वह शुभ है पर संक्लिष्ट नहीं है। जैसे योगबिन्दु ग्रंथ में भी जो अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता एवं चित्तवृत्तिसंशय-ऐसे पाँच योग की कक्षा रखी है, उसमें भी पांच योग में से अन्तिम योग को छोड़कर चार योगों में शुभ चित्तवृत्ति तो चालू ही रहती है। ऐसे ही उपाध्याय महाराज ने द्रव्य गुण पर्याय रास18 में भी दिगम्बर मान्यता की समीक्षा करते वक्त नव नय एवं तीन उपनय एवं प्रति उपनय के अवांतर भेद करके और दो नय-द्रव्यनय एवं पर्यायनय एवं तीनों उपनय की कल्पना वैसी गौरवयुक्त एवं दोषयुक्त है, उनका सुन्दर आलोचन किया है। उसमें उन्होंने कहा है-सात नय में प्रथम तीन नय द्रव्यनय है और बाद के चार नय पर्याय नय है तो फिर आठवां-नौवां वो दो अलग से द्रव्य-पर्यायनय कौनसा लेने का है ऐसा ही, नयों से भिन्न उपनयों की . कल्पना भी निरर्थक है, क्योंकि सात नय हैं वो जीव भिन्न-भिन्न भेद ही हैं अथवा वो यह कह सकते . हैं कि सात नय वैसी नयों के विविध द्रष्टान्त हैं। . . गूढ़ रहस्यों का दर्शन पू. उपाध्यायजी के ग्रंथों की विशिष्टता का वर्णन करते-करते तो ग्रंथों के ग्रंथ का सृजन हो जाए, ऐसा है। 'खंडन खंड खाद्य' एवं 'महावीर स्तव' नामक ग्रंथ में बौद्ध की मौलिक मत के तर्क में अनुत्तीर्ण साबित करके अद्भुत रीति से तर्क प्रमाण के बल पर उनका सचोट रीति से खंडन किया है, उसी समय उसकी ही स्वोपज्ञ टीका में उन्होंने उदयनकृत आत्मतत्त्वविवेक नाम के बौद्धमत के खंडन - ग्रंथ पर दीतिकरि रचित टीका के पद पर अद्भुत विवेचन किया है। 'खंडनखंडखाद्य' मूल ग्रंथ तो सिर्फ 100 गाथा का है। टीका भी इतनी विस्तृत नहीं है किन्तु उपाध्याय महाराज स्वयं अन्यत्र प्रस्तुत कर रहे हैं कि बौद्ध न्याय के खंडन के लिए उन्होंने डेढ़ लाख श्लोकप्रमाण ग्रंथ की रचना की है। तब आश्चर्य होता है कि कैसी असाधारण विद्वत्ता, कैसा सरल जीवन, कैसी शासन सेवा, उनकी कृतियों का पार पाना बहुत ही कठिन है। उन्होंने स्वयं ही कई स्थानों पर अपनी ही टीका-टब्बा स्वरूप अपने ही ग्रंथों में अनेक रहस्यों का विवेचन किया है। उस पर से ही पता चलता है कि उनके अलावा दूसरे कितने ही रहस्य होंगे, जो उन्होंने स्वयं लिखित विवेचन पर या उनके समकालीन या पूर्वाचार्यों या अद्वितीय विद्वानों के लिखे गए विवेचन पर कई रहस्यों का उद्घाटन किया होगा। वो तो सिर्फ कल्पना का ही विषय है। 508 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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