________________ प्रज्ञापना में तो चारों भाषाओं को आयुक्तापूर्वक बोलने पर आराधक कहा है। परन्तु दसवैकालिक सूत्र186 के सप्तमाध्ययन की प्रथम गाथा में तो मृषा एवं मिश्रभाषा बोलने का निषेध किया गया है। अतः बाह्यदृष्टि से विरोध-सा भासित होता है। उपाध्यायजी ने उपर्युक्त विरोधाभास187 का कुशलतापूर्वक समाधान करते हुए बताया है कि दश सूत्र का कथन औत्सर्गिक है तथा प्रज्ञापना सूत्र का वचन औपवादिक है अतः अपवाद से चारों भाषाओं को बोलने पर भी उत्सर्ग अबाधित रहता है। भाषादर्शनलक्षी उपाध्याय का भाषा रहस्य ग्रंथ की स्वोपज्ञ टीका भी कैसी अद्भुत, विद्वतापूर्ण एवं प्रौढभाषायुक्त! स्वोपज्ञ टीका के गुप्त भावों को अति सूक्ष्मतापूर्वक प्रगट करने में यह टीका दिनकर स्वरूप है। जब इसका पठन करते हैं तब ज्ञात होता है कि स्वोपज्ञ टीका के लगभग प्रत्येक अंश को लेकर टीकाकार ने बहुत ही सुन्दर रीति से विशिष्ट क्षयोपशम् साध्य स्पष्टीकरण किया है। उसमें भी स्वोपज्ञ टीकान्तर्गत 'दिक्', 'ध्येयम्', 'अन्यत्र, 'अन्ये' आदि शब्दों के स्पष्टीकरण से तो टीकाकार ने कमाल ही कर दिया है। इन स्पष्टीकरणों से टीका में चार चाँद लगा दिये हैं। उसी तरह नन्वाशय की तथा स्वोपज्ञ टीका के अनेक स्थलों की अवतरणिका बहुत ही सुन्दर है। इस टीका को देखते हैं तो यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि उपाध्यायजी की भाषा रहस्य टीका हकीकत में 'आर्षटीका' की झलक सजाए है। उपाध्याय यशोविजय ने भाषादर्शनलक्षी विशिष्टता को भाषा रहस्य ग्रंथ एवं उनकी टीका के माध्यम से किया है। उनका विशिष्ट मुद्दा निम्न है किसी विषय के बारे में विरोध का उद्भावन करके अनेक ग्रंथों की सहायता से एवं अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से उसका हल करना इसका स्वभाव-सा है, जैसे गेण्हई ठियाइ जीवो, णेव य अठिवाइ भादव्वाइं। दव्वाइचउविसेसो णायव्वो पुण जहाजोगं।।31 / / 188 इस गाथा की टीका में स्वोपज्ञ टीका के एक परमाणु के स्पर्श के बारे में 'मृदुशीतौ मृदुष्णौ वा' इत्यादि से जो कहा है, उसमें व्याख्याप्रज्ञप्ति, प्रज्ञापना टिप्पण, तत्त्वार्थ टीका, प्रज्ञापना की मलयगिरिसूरि कृत टीका के आधार से विरोधाद्भावन करके प.पू. सिद्धान्त दिवाकर आचार्यदेव जयघोषसूरीश्वर की सहायता से बन्धशतक चूर्णि के आधार पर समाधान किया है। ___टीका में स्वोपज्ञ टीका के उसमें विशिष्ट पदों की गहराई दृष्टिगोचर होती है। जैसे-गाथा नं. 4 की स्वोपज्ञ टीका में भाषाद्रव्य के 9 विशेषण दिये हैं। उसमें आठवां विशेषण 'तान्यप्यानुपूर्वीकलितादि आनुपूर्वी 89 नाम ग्रहणापेक्षया यथासन्नत्वं तया कलितानी, न पुनरनीदृशानि।' इस पाठ के 'ग्रहणापेक्षया यथासन्नत्वं' की टीका अतिविशद्प से करके प्रश्नोद्भावन के बाद निष्कर्ष लिखा है-“अतो ग्रहणापेक्षया यथासन्नत्वं नाम ग्रहणभाषाद्रव्यापेक्षया कुमिकत्वम् / तच्च प्रदर्शितरीत्या ग्रहणभाषा द्रव्य घट की भूत परमाणुगताल्यबहु संख्या दत्वा पेक्षयेव कोटि माटीकते।" अर्थात् इस चर्चा का सार इस प्रकार है-जीव अपने योग के अनुसार आनुपूर्वीयुक्त भाषाद्रव्यों का ग्रहण करता है तब असत् कल्पना से 30000 परमाणु निष्पन्न द्रव्यों के स्कन्ध से लेकर 468 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org