________________ इसी तरह जायसी के पाँच प्रकार के रहस्यवाद बताये गए हैं, जैसे-1. आध्यात्मिक रहस्यवाद, 2. प्रकृतिमूलक रहस्यवाद, 3. प्रेममूलक रहस्यवाद, 4. योगमूलक रहस्यवाद, 5. अभिव्यक्तिमूलक रहस्यवाद।" एस.एन. दासगुप्ता ने हिन्दू मिस्टिसिज्म में रहस्यवाद का एक वर्गीकरण याज्ञिक रहस्यवाद अथवा कर्म काण्डात्मक रहस्यवाद के रूप में भी किया है। डॉ. राजेन्द्र सिंह रायजादा ने रहस्यवाद नामक पुस्तक में रहस्यवाद के विभिन्न रूपों की चर्चा की है। उसमें सर्वप्रथम रहस्यवाद को दो भागों में विभक्त किया गया है-1. एक प्रेम और ऐक्य का रहस्यवाद, 2. दूसरा ज्ञान और समझ का रहस्यवाद। अन्य दृष्टिकोणों से उसमें रहस्यवाद के तीन भेद किये गए हैं-1. आत्म रहस्यवाद, 2. ईश्वर रहस्यवाद और 3. प्रकृति रहस्यवाद। इसके अतिरिक्त उसमें साधनात्मक रहस्यवाद, कृतक रहस्यवाद तथा प्रेतात्मा रहस्यवाद का भी उल्लेख किया है। किन्तु डॉ. भगवत्स्वरूप मिश्र ने कबीर ग्रंथावली में रहस्यवाद के मूलतः दो भेदों का ही संकेत किया है-1. भावनात्मक रहस्यवाद, 2. साधनात्मक रहस्यवाद / वस्तुतः आध्यात्मिक क्षेत्र में रहस्यवाद के ये दो ही रूप अधिक समीचीन प्रतीत होते हैं। भावनात्मक और साधनात्मक रहस्यवाद के अन्तर्गत आध्यात्मिक आत्मिक दार्शनिक रहस्यवाद का भी समावेश हो जाता है। परमतत्त्व रूप साध्य को प्राप्त करने में ये दो रूप ही सहायक होते हैं। साधना और भावना के द्वारा ही साधक दृष्टि तत्त्व में अदृष्टि तत्त्व की परम अनुभूति करता है। अतः प्रस्तुत प्रबन्ध में अध्यात्मयोगी उपाध्याय यशोविजय ने रहस्यवाद के सम्बन्ध में हमें मूलतः साधनात्मक, भावनात्मक और अध्यात्मक भाषात्मक रहस्यवाद की ही विवेचना करेंगे, क्योंकि उनकी रचनाओं में उक्त रहस्यवादों का ही उल्लेख पाया जाता है। रहस्यवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि उपाध्याय यशोविजय के रहस्यवाद की विवेचना करने के पूर्व रहस्यवाद की उस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से परिचित होना नितान्त आवश्यक है, जिसे हिन्दी के मध्यकालीन सन्त साहित्य में प्रवहमान रहस्य साधना की उद्गम स्थली कही जा सकती है। आदिकाल से मानव मन की जिज्ञासा, रुचि दृश्य पदार्थों से सन्तुष्ट होती हुई नहीं जान पड़ती। वह कुछ और जानना, पाना चाहता है। भारत में रहस्यमय परमतत्त्व की खोज प्राचीनकाल से होती रही है और इस रूप में रहस्यभावना के बीच प्राचीनतम भारतीय वाङ्मय में उपलब्ध है। भारतभूमि में परमतत्त्व का साक्षात्कार करने वाले अनेक ऋषि-महर्षि, रहस्यद्रष्टा, सन्त-साधक हो गये हैं, जिन्होंने इस रहस्यानुभूति का परम आस्वादन किया है। रहस्य द्रष्टाओं की अनुभूतियां ही जब भाषा में अभिव्यक्त होती हैं तब वे रहस्यवाद कहलाती हैं। मानव मन सहज ही इतना जिज्ञासु है कि वह जानना चाहता है कि आत्मा क्या है, जगत् क्या है और इन दोनों के अतिरिक्त अतीन्द्रिय जगत् का वह परमतत्त्व क्या है, जिसे परमात्मा या परब्रह्म कहा जाता है। यह सत्य है कि सामान्यतः जो दृश्य तत्त्व है उनके प्रति जिज्ञासा नहीं होती, क्योंकि उनका अनुभव इन्द्रिय ग्राह्य होता है। जब दृश्य से परे अदृश्य तत्त्व की अनुभूति होती है तब रहस्य का जन्म होता है। इस प्रकार जो तत्त्व अदृश्य होकर भी अस्तित्व बनाये रखता है, उसके प्रति जिज्ञासा 486 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org