Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ के दर्शन होते हैं। इनके प्रमुख रूप में मीराबाई, सूरदास और तुलसीदास का नाम लिया जा सकता है, जिनकी रचनाओं में रहस्यवादी भावना अभिव्यक्त हुई है। मीरा ने अपने पदों में विरह का सर्वोत्कृष्ट रूप प्रस्तुत किया है। उनका हृदय प्रभु के विछोह में विफल है। इस आध्यात्मिक विकलता का हृदयग्राही वर्णन उनके निम्नांकित पदों में देखा जा सकता है सखी मेरी नींद नसानी हो। पिया का पंथ निहारते सब रैनी बिहानी हो। सखियन मिल के सीख दई, मन एक न मानी हो। बिन देखे कल ना परे, जिय एसी ठानी हो।। 'अंग छीन व्याकुल भई, मुख पिय-पिय बानी हो। अन्तर वेदन विरह की, वह पीर न जानी हो।। ज्यों चातक धन को रहे, मछरी जिमि पानी हो। मीरा व्याकुल बिरहनी सुध-बुध बिसरानी हो।। 'अन्तर वेदन बिरह की, वह पीर न जानी हो' इस भाव को उन्होंने एक दूसरे पद में और अधिक स्पष्ट किया है घायल की गति घायल जाने, की जिण लाई होय। जौहरी की गति जौहरी जाने, कि जिन जौहरी होय।।” अपने प्रियतम की जुदाई में, वियोग में, विरह में मीरा व्याकुल थी। वे कहती हैं दिवस न भूख रैन नहि निद्रा यूँ तन पल-पल छीजे हो। मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर चित बिछुरन नहीं कीजै हो।। इसी तरह मीरा ने 'मैं बिरहाण बैठी जागूं' आदि पदों में भी विरहोद्गार व्यक्त किये हैं। वस्तुतः मीरा ने अपने पदों में परमात्मा से अपने तादात्म्य की अनुभूति का अथवा परमात्मा से मिलन की उत्कण्ठा का सुन्दर वर्णन किया है, जिनमें भावानात्मक रहस्यवाद की झलक दिखाई देती है। आधुनिक हिन्दी कवियों में रहस्यवाद . कहा जा सकता है कि आधुनिक रहस्यवाद का उदय छायावाद की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप हुआ है। आधुनिक युग की प्रकृति को लेकर रहस्यवाद की सृष्टि की गई है। प्रकृतिमूलक रहस्यवाद सुमित्रानन्दन पंत की रचनाओं में पाया जाता है। आधुनिक युग के रहस्यवादी कवियों में प्रमुख रूप से प्रसाद, निराला, पन्त और महादेवी वर्मा के नाम उल्लेखनीय हैं। इन कवियों के रहस्यवाद में कल्पनातत्त्व प्रमुख है। इनके रहस्यवाद में साधनात्मक रहस्यवाद के दर्शन नहीं होते हैं। आधुनिक युग के हिन्दी रहस्यवादी कवियों में महादेवी वर्मा का स्थान सर्वोपरि है। प्रेम और विरह की वे अद्वितीय गायिका हैं। वस्तुतः इस युग के रहस्यवादी कवियों की अनुभूति वास्तविक न होकर कल्पना प्रधान है। 496 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org