Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ * सृष्टि करते हैं। इसमें आन्तरिक साधना पर भी बल दिया गया प्रतीत होता है, यथा-सन्ध्या पूजा के लिए सुषुम्ना नाड़ी की सन्ध्या ही नाथपंथियों के अनुसार वास्तविक पूजा कही जाती है। इसी तरह हृदय में आत्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है हृदयते प्रतिबिम्बेन आत्म रूपं सुनिश्चितम्। नाद और बिन्दु भी इस साधना में केन्द्रबिन्दु हैं। नाथपंथियों के अनुसार जल में जिस प्रकार चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब है, उसी तरह घट के भीतर परमात्मा रहता है आतमा मधे प्रमातमां दीसै ज्यौं जलमधे चंदा।।108 नाथ-पंथ योग में शिव शक्ति का मिलन और उसका आनन्द चरम सीमा है। यह आनंद रहस्य की उत्कृष्टता का दिग्दर्शन कराता है। गोरखनाथ के योग के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि उन्होंने हठयोग को अपनाया। इड़ा और पिंगला नाड़ी का अवरोध करके प्राण को सुषुम्ना के मार्ग में प्रवाहित करना ही हठयोग है।109 उनके सिद्धान्त के अनुसार कुण्डलिनी एक शक्ति है, जो सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। यह शक्ति ही ब्रह्म द्वार को अवरुद्ध कर सोई हुई है। बौद्ध सिद्धों की भांति ही नाथ सम्प्रदाय की साधना भी रहस्यपूर्ण है। उसका ध्येय भी निर्गुण तत्त्व है। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट विदित होता है कि बौद्ध धर्म की महायान शाखा के अन्तर्गत सिद्ध और नाथ दोनों पंथों में साध्य और साधन गूढ़ होने से दोनों सम्प्रदायों ने रहस्यात्मक साधना-पद्धति का पर्याप्त प्रचार-प्रसार किया। इसमें सन्देह नहीं कि मध्यकालीन सन्त साहित्य को इनकी साधना-पद्धति ने अत्यधिक प्रभावित किया। इनका सर्वाधिक प्रभाव कबीर की रचना पर देखा जा सकता है। सूफी कवियों में रहस्यवाद भारतीय संस्कृति में अद्वैत विचारणा और उस पर आधारित रहस्य भावना की सरिता सतत बहती रही है। आगे बौद्ध मंत्र में ब्रजयानी सिद्धों और नाथ-पन्थी योगियों ने आध्यात्मिक रहस्यभावना की सृष्टि की। फिर 12वीं शताब्दी के आस-पास साधना के क्षेत्र में निर्गुण पन्थ का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे कबीर ने आगे चलकर विकसित किया। हिन्दी काव्य के क्षेत्र में 15वीं शती से लेकर 17वीं शती तक सगुण और निर्गुण नामक रचित काव्य की दो समान्तर धाराएँ चलती रहीं। निर्गुण धारा दो शाखाओं में विभक्त हुई-एक ज्ञानाश्रयी शाखा और दूसरी सूफियों से प्रभावित शुद्ध प्रेममार्गी शाखा।" ज्ञानाश्रयी शाखा में कबीर और शुद्ध प्रेममार्गी शाखा में मलिक मुहम्मद जायसी प्रमुख कवि हैं। सूफी साधना में बुद्धि की अपेक्षा हृदय की भावना अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसीलिए उसमें प्रेमतत्त्व को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। सूफियों के इस प्रेम में विरह की व्याकुलता होती है और इस प्रेम-पीड़ा की जो अभिव्यंजना होती है, वह विश्वव्यापी बनती है। साथ ही प्रेम का स्वरूप पारलौकिक बन जाता है। वास्तव में, सूफी साधना में प्रेमतत्त्व की प्रधानता है। इसलिए उनमें वास्तविकता और प्रेम की अनुभूति का दर्शन है। डॉ. विश्वनाथ गौड के अनुसार सच्चा, भावात्मक और काव्य का अंगीभूत रहस्यवाद यही है। हिन्दी कविताओं की तुलना करते हुए ये लिखते हैं-इसकी तुलना में आधुनिक कवियों का रहस्यवाद काल्पनिक और मिथ्या है, क्योंकि उसकी रहस्यानुभूति का आधार कल्पना है, अनुभव नहीं। 492 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org