________________ उपनिषदों में सृष्टि की उत्पत्ति संबंधी और उत्पत्ति पूर्व अस्तित्व सम्बन्धी चिंतन पाया जाता है। उत्पत्ति पूर्व अस्तित्व सम्बन्धी चिन्तन में रहस्यभावना का दिग्दर्शन हुआ है। तैतिरीयोपनिषद् में यह भी कहा गया है कि ब्रह्म का साक्षात्कार हृदय में होता है। इस हृदय में जो आकाश है, उसमें यह विशुद्ध प्रचार स्वरूप मनोमय पुरुष रहता है। यह परमतत्त्व रहस्यमय होकर आनन्द स्वरूप है। श्वेताश्वेतर कठोपनिषद् में आत्मा के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहा है अणोरणीयान्महतोमहीयानात्मा गुहकयां निहितोऽस्य जन्तोः। अर्थात् यह अणु से भी अणु और महान् से भी महान् आत्मा इस जीव के अन्तःकरण में स्थित है। इतना ही नहीं, कठोपनिषद् में रहस्यानुभूति की अनिर्वचनीयता भी व्यक्त हुई है। नैव वाचा न मनसा प्राप्तुम्शक्यो न चक्षुषा। अस्तीति ब्रुवतीऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते।। इस प्रकार कहा जा सकता है कि उपनिषदों में ब्रह्म और जगत्, आत्मा और परमात्मा आदि का सम्यक् चिंतन प्रतीत होता है। वेदों की अपेक्षा औपनिषदिक साहित्य में आत्मा और परमात्मा में अद्वैत पर आधारित रहस्य भावना का सुन्दर दिग्दर्शन हुआ है। आत्मा में परमात्मा का साक्षात्कार करना ही उपनिषदों का रहस्य है। भगवद् गीता, भागवत पुराण एवं भक्तिसूत्र में रहस्यवाद न केवल वेदों एवं उपनिषदों में अपितु भगवद् गीता में भी रहस्यमय तत्त्वों की विचारणा पाई . जाती है। भगवद् गीता के ग्यारहवें अध्याय में रहस्यात्मक अनुभूति का वर्णन अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में उपलब्ध है। अर्जुन कहता है नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप।" अर्थात् उस विराट स्वरूप का न आदि है, न मध्य और न अन्त है। गीता में वर्णित विश्वरूप की कल्पना अद्वैतमूलक रहस्य भावना का चरम विकास है। भागवत पुराण, शाण्डिल्य भक्तिसूत्र एवं नारद भक्ति सूत्र में भी भक्तिपरक रहस्यवादी भावना का सम्यक् निदर्शन हुआ है। प्रो. आर.डी. रानाडे के अनुसार भागवत पुराण भारत के प्राचीन रहस्यवादी के वर्णन तथा भावोद्गारों का कोष है। भागवत में सर्वप्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के जीवन चरित्र और साधनापद्धति का रहस्यमय वर्णन है। हिन्दी के मध्यकालीन सन्त और भक्त साहित्य पर भागवत पुराण का सर्वाधिक प्रभाव है। भागवत की तरह शाण्डिल्य और नारद भक्ति सूत्रों में भी भक्तिमूलक रहस्यवादी भावना का वर्णन हुआ है। इनमें गौणी भक्ति और मुख्य रूप से प्रेमा भक्ति का सम्यक् विवेचन है। साथ ही भगवत् प्रेम में स्वरूप को अनिर्वचनीय कहा गया है। सारांशतः यह कहा जा सकता है कि भागवत पुराण भक्ति सूत्र एवं नारद ऋषि सूत्र रहस्यवादी चिन्तन के विकास का प्रतिनिधित्व करते हैं। 489 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org