________________ है, जहाँ कार्य वांछित नहीं होता। किन्तु आस्टिन के अनुसार वांछित कार्यों के लिए भी इसका प्रयोग होता है।182 इस आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि साधारण भाषादर्शन अनुपयुक्त है। इसके विरोध में दो बातें कही जा सकती हैं-प्रथम ऐसे मतभेद सभी दर्शनों में है। इस मतभेद का कारण यह है कि किसी एक दार्शनिक ने या सभी दार्शनिकों ने साधारण भाषा का पूर्ण विश्लेषण नहीं किया, अतः यह आलोचना निराधार है। दूसरी आपत्ति यह है कि साधारण भाषा दार्शनिकों की प्रणाली प्रागनुभविक एवं वैयक्तिक है। इसके अनुसार साधारण भाषा दार्शनिक मनमाने ढंग से शब्दों का वचन करते हैं और अपनी रुचि के अनुसार उनकी सैद्धान्तिक व्याख्या करते हैं। इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि साधारण भाषा दार्शनिकों का उद्देश्य साधारण भाषा का वास्तविक यथार्थपरक विश्लेषण है। यह हो सकता है कि विश्लेषण करते समय कुछ त्रुटियाँ रह जायें, किन्तु उन्हें सभी विधि से दूर किया जा सकता है। शब्द प्रयोग की व्याख्या में यह खतरा अधिक है किन्तु इसका भी निराकरण प्रयोगों पर अधिक से अधिक ध्यान देकर किया जा सकता है। मेरे विचार से इस दर्शन के प्रति एक अधिक गम्भीर आक्षेप उठाया जा सकता है, किन्तु यह आक्षेप उन सभी दर्शनों के प्रति है, जो तथ्यों की उपेक्षा कर दार्शनिक निष्कर्ष प्रतिस्थापित करते हैं। भाषा या विचार का अपना स्वतंत्र, सार्वभौम, प्रागनुभविक आकार मानना गलत है। भाषा का प्रयोग, प्रयोग करने वालों के अर्जित या सर्जित विश्वासों को व्यक्त करता है, न कि सत्ता का स्वरूप। इसका अर्थ यह नहीं है कि भाषा सत्ता का स्वरूप व्यक्त ही नहीं कर सकती। मेरा उद्देश्य केवल यह बताना है कि भाषिक विश्लेषण के साथ-साथ अतिभाषिक साक्ष्य भी आवश्यक है। भाषा दर्शन में उपाध्याय यशोविजय का वैशिष्ट्य भारतवर्ष पुरातनकाल से अद्वितीय संस्कृति का क्रीडांगण रहा है। सभी संस्कृतियों में निवृत्तिमार्ग की उपासिका श्रमण-संस्कृति का स्थान अग्रगण्य रहा है। प्राचीन काल में इसी संस्कृति के अग्रगण्य अनेक जैन मुनिवरों ने साहित्य-सेवा में तल्लीन बनकर अपनी आत्मा के साथ-साथ समस्त जैन संघ एवं भारतवर्ष को कृतार्थ किया है। श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ग्यारह गणधरों ने प्रभु की अमृतवाणी . को अपनी प्रतिभा के द्वारा गूंथ कर बारह अंगसूत्रों का निर्माण किया। अनेक समकालीन श्रमणों ने एवं उनके पश्चात् वर्ती श्रमणों ने द्वादशांगी के आधार पर जो अन्य साहित्य का सृजन किया था, यह सम्पूर्ण रूप में आज प्राप्त नहीं है। जैन वाङ्मय को गीर्वाण गिरा में गूंथने वालों में वाचनकवर्य उमास्वाति का अग्रस्थान है, जिन्हें श्वेताम्बर एवं दिगम्बर भी प्रमाणभूत मान रहे हैं। तत्पश्चात् जैन श्वेताम्बर गगन में सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी खुद की अनेकविध प्रतिभा से सूर्य समान सुशोभित हैं। वे कवि, वादी, तार्किक, दार्शनिक, स्तुतिकार एवं सर्वदर्शन संग्रहकार के रूप में अद्वितीय स्थान को प्राप्त हैं। ऐसे गौरवशाली साहित्यकारों में साहित्य का आकण्ठ पान करके श्री. हरिभद्रसूरिजी पुष्ट हुए थे, जिन्हें नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरिजी ने पंचाशक की टीका में भगवान कह कर पुकारा है। बाद में जिनशासन के ताजस्वरूप हेमचन्द्राचार्य हुए। हरिभद्रसूरि एवं हेमचन्द्रसूरि-ये दोनों आचार्य कलिकालसर्वज्ञ बिरुदवादी हुए हैं। दोनों कलिकाल सर्वज्ञ सूरिसम्राट् के बाद अग्रगण्य स्थान स्वोपज्ञ टीका से अलंकृत भाषारहस्य ग्रंथ के कर्ता महामहोपाध्याय यशोविजय का है। उपाध्याय की विमलयश रश्मियाँ विद्वदमानस को चिरकाल से आलोकित कर रही है। उनके उन्नत एवं ज्योतिर्मय मस्तिष्क ने जो विचारभ्रांति एवं ज्ञानसमृद्ध . 466 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org