________________ “जीव एकान्तं असद्रुप है अर्थात् जीव है ही नहीं"। ऐसा विवाद-विरुद्ध अभिप्राय या वक्तव्य उपस्थित होने पर वस्तु के मूल स्वरूप की प्रतिष्ठा करने की इच्छा से जीव सद् और असद्रुप है। इस तरह आगम के अनुसार जो भाषा बोली जाती है, वह भाषा व्यवहारनय से सत्यरूप से परिभाषित है, क्योंकि यह भाषा आराधनी है। जो भाषा आराधनी है, वह सत्य है-यह व्यवहारनय की परिभाषा उपाध्याय यशोविजय * ने की है। वे कथन जो वस्तु के यथार्थ स्वरूप के प्रतिपादक हैं, सत्य कहलाते हैं। कथन और तथ्य को संवादिता या अनुरूपता ही सत्य की मूलभूत कसौटी है। जैन दार्शनिकों ने पाश्चात्त्य अनुभववादियों के समान ही यह स्वीकार किया है कि जो कथन तथ्य का जितना अधिक संवादी होगा, वह उतना ही अधिक सत्य माना जायेगा। यद्यपि जैन दार्शनिक कथन की सत्यता को उसकी वस्तुगत सत्यापनीयता तक ही सीमित नहीं करते हैं। वे यह भी मानते हैं कि आनुभविक सत्यापनीयता के अतिरिक्त भी कथनों में सत्यता हो सकती है। जो कथन ऐन्द्रिक अनुभवों पर निर्भर न होकर अपरोक्षानुभूति के विषय होते हैं उनकी सत्यता का निश्चय तो स्वयं अपरोक्षानुभूति पर ही निर्भर होता है। अपरोक्षानुभव के ऐसे अनेक स्तर हैं जिनकी तथात्मक संगति खोज पाना कठिन है। जैन दार्शनिकों ने सत्य को अनेक रूपों में देखा है। स्थानांग, प्रश्नव्याकरण, प्रज्ञापना और भगवती" आराधना में सत्य के दस भेद बताये गये हैं1. जनपद सत्य, 2. सम्मत सत्य, 3. स्थापना सत्य, 4. नाम सत्य, 5. रूप सत्य, 6. प्रतीति सत्य, 7. व्यवहार सत्य, 8. भाव सत्य, 9. योग सत्य, 10. उपमा सत्य। अकलंक ने सम्मत सत्य, भाव सत्य और उपमा सत्य के स्थान पर संयोजना सत्य और काल सत्य का उल्लेख किया है। भगवती आराधना में योग सत्य के स्थान पर संभावना सत्य का उल्लेख हुआ है। इन्हीं भेदों का उल्लेख उपाध्याय यशोविजय ने भी भाषारहस्य ग्रंथ में किया है तम्मीतव्वयण खलु, सच्चाअवहारणिक्कभावेणं। आराहणी य ऐसा; सुअंमि परिभासिया दसहा / / 2 / / जणवय संमय ठवणा नामे रुवे पदुच्चसच्चे य। ववहार भावं जोए दसमे ओवम्मसच्चे य।।22 / / " अर्थात् मात्र अवधारणैकभाव से उस वस्तु में उस वस्तु का कथन करना यह सत्य भाषा है। आगम में यह आराधनी भाषारूप से परिभाषित है, जिसके दस भेद हैं-1. जनपद सत्य, 2. सम्मत सत्य, 3. स्थापना सत्य, 4. नाम सत्य, 5. रूप सत्य, 6. प्रतीत्य सत्य, 7. व्यवहार सत्य, 8. भाषा सत्य, 9. योग सत्य और 10. औपम्य सत्य है। . 1. जनपद सत्य-जनपद सत्य भाषा की व्याख्या करते हुए उपाध्याय यशोविजय ने कहा है जां जणवय संकेया, अत्यं लोगस्स पतियावेई। एसा जणवयसच्चा पण्णता धीरपुरिसेहि।।23।। अर्थात् जो भाषा जनपद संकेत से लोक को अर्थ का बोध कराती हो, वह जनपद सत्य भाषा है-ऐसा उपाध्यायजी ने प्रतिपादन किया है। जिस देश में जो भाषा या शब्द व्यवहार प्रचलित हों, उसी के द्वारा वस्तु तत्त्व का संकेत करना जनपद सत्य है। एक जनपद या देश में प्रयुक्त होने वाला वही शब्द दूसरे देश में असत्य हो जायेगा। 439 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org