________________ 8. अनभिग्रहीता-अनेक कार्य की पृच्छा करने पर निश्चित रूप से किसी एक कार्य का जिस प्रत्युत्तर से श्रोता को निश्चय न हो, वह भाषा अनभिगृहीत भाषा है।120 जैसे 'जो पसंद हो वह कार्य करो', 'जो तुम्हें सुखप्रद हो वैसा करो' आदि। ऐसे कथन भी सत्यापनीय नहीं होते, इसलिए इन्हें भी असत्यअमृषा कहा गया है। 9. अभिगृहीता-अनभिगृहीत भाषा से विपरीत भाषा अभिगृहीत भाषा कही जाती है, ऐसा उपाध्यायजी का कथन है। किसी दूसरे व्यक्ति के कथन को अनुमोदित करना अभिग्रहीत कथन है, जैसे-हाँ! तुम्हें ऐसा ही करना चाहिए-ऐसे कथन भी सत्य-असत्य की कोटि में नहीं आते हैं। 10. संदेह कारिणी-जिस भाषा के अनेकार्थ पद को सुनकर श्रोता को संशय हो वह संदेहकारिणी भाषारूप से कथन है, ऐसा वाचकवर ने कहा है। जो कथन द्वयर्थक हो या जिनका अर्थ स्पष्ट न हो, संदेहात्मक भेद कहे जाते हैं, जैसे- सैन्धव अच्छा होता है-यहाँ वक्ता का तात्पर्य स्पष्ट नहीं है कि सैंधव से उसे नमक नाम अभिप्रेत है या सिन्धु देश का घोड़ा, अतः ऐसे कथनों को न सत्य कहा जा सकता है और न असत्य। 11. व्याकृता-स्पष्ट अर्थ वाली असत्य मृषा भाषा कही जाती है। वे कथन जो किसी तथ्य की परिभाषाएँ हैं, इस कोटि में आते हैं। आधुनिक भाषा विश्लेषण दार्शनिकों की दृष्टि से कहें तो वे पुनरुक्तियां हैं। जैन विचारकों ने इन्हें भी सत्य, असत्य की कोटि में नहीं रखा है, क्योंकि इतना कोई विधान नहीं होता या ये कोई नवीन कथन नहीं करते हैं। 12. अव्याकृतभाषा-अव्याकृत भाषा वह है, जो अत्यन्त गम्भीर पदार्थ की बोधक होती है। यह अव्यक्त भाषा अव्याकृत भाषा है-यह जानना चाहिए। जैसे-यह नहीं कहा जा सकता है कि लोक शाश्वत है या अशाश्वत, अव्याकृत भाषा तथ्य का स्पष्ट रूप से विधान या निषेध नहीं करती है, इसलिए वह भी सत्य-असत्य की कोटि में नहीं आती है। आज समकालीन दार्शनिकों ने भी आमंत्रणी, आज्ञापनीय, याचनीय, पृच्छनीय और प्रज्ञापनीय आदि कथन को असत्यअमृषा माना है। एयर आदि ने नैतिक प्रवचनों को आज्ञापनीय मानकर उन्हें असत्यापनीय कहा है-जो जैन दर्शन की उपर्युक्त व्याख्या के साथ संगतिपूर्ण है। भाषा दर्शन का महत्त्व यहाँ दार्शनिक प्रश्न यह है कि क्या शब्द प्रतीकों या भाषा में अपने विषय या अर्थ को अभिव्यक्ति करने की सामर्थ्य है? क्या कुर्सी शब्द कुर्सी नामक वस्तु को और प्रेम शब्द प्रेम नामक भावना को अपनी समग्रता के साथ प्रस्तुत कर सकता है? यह ठीक है कि शब्द अपने अर्थ का वाचक अथवा सांकेतिक है किन्तु क्या कोई भी शब्द अपने वाच्य विषय की पूर्णतया अभिव्यक्ति करने में सक्षम है? क्या शब्द अपने विषय के समस्त गुणधर्मों और पर्यायों का एक समग्र चित्र प्रस्तुत कर सकता है? वस्तुतः इस प्रश्न का उत्तर कठिन है। यदि हम यह मानते हैं कि शब्द अपने अर्थ या विषय का वाचक नहीं है तो फिर भाषाजन्य ज्ञान की प्रामाणिकता और भाषा की उपयोगिता संदेहात्मक बन जाती है, किन्तु इसके विपरीत यह मानना भी पूर्णतया सही नहीं है कि शब्द अपने अर्थ या विषय का सम्पूर्णतया के साथ निर्वचन करने में समर्थ है और वह अपने वाच्य का यथार्थ चित्र श्रोता के सम्मुख प्रस्तुत कर देता है। जैसा कि हमने देखा है, जैन आचार्यों ने शब्द और उसके अर्थ के सम्बन्ध को लेकर एक मध्यममार्गीय दृष्टिकोण अपनाया है। न तो वे बौद्धों के समान यह मानने के लिए सहमत हैं कि शब्द अपने अर्थ 448 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org