Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ * या विषय का संस्पर्श ही नहीं करता है और न मीमांसकों एवं वैयाकरणिकों के समान यह मानते हैं कि शब्द अपने विषय का समग्र चित्र प्रस्तुत कर सकता है। जैन दार्शनिकों के अनुसार शब्द और उसके द्वारा सांकेतिक अर्थ या विषय में एक सम्बन्ध तो है, किन्तु यह सम्बन्ध ऐसा नहीं है कि शब्द अपने विषय या अर्थ का स्थान ही ले ले। शब्द अर्थ या विषय का संकेतक तो है, किन्तु उसका स्थान नहीं ले सकता। अर्थबोध की प्रक्रिया में शब्द को अपने अर्थ या विषय का प्रतिनिधि तो कहा जा सकता है, फिर भी शब्द अपने विषय या अर्थ का हू-ब-हू चित्र नहीं है। जैसे नक्शों में प्रदर्शित नदी वास्तविक नदी की संकेतक तो है, किन्तु न तो वह वास्तविक नदी है और न उसकी हू-ब-हू प्रतिबिम्ब ही है, वैसे ही शब्द और उनसे निर्मित भाषा भी अपने अर्थ या विषय की संकेतक तो है किन्तु उसका हू-ब-हू प्रतिबिम्ब नहीं है। फिर भी शब्द या भाषा अपनी सहज योग्यता और संकेतक शक्ति से विषय का एक चित्र श्रोता या पाठक के सम्मुख अवश्य उपस्थित कर देता है। जिस प्रकार ज्ञान और ज्ञेय में ज्ञापन और ज्ञाप्य सम्बन्ध है, उसी प्रकार शब्द और अर्थ में प्रतिपादन और प्रतिपाद्य का वाचक और वाच्य सम्बन्ध है। यद्यपि जैन दार्शनिक शब्द और उसके अर्थ में सम्बन्ध स्वीकारते हैं किन्तु यह सम्बन्ध मीमांसकों के समान नित्य सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि भाषा के प्रचलन में अनेक बार शब्दों के अर्थ बदलते रहे हैं और एक समान उच्चारण के शब्द भी दो भिन्न भाषाओं में भिन्न अर्थ रखते हैं। भाषा (शब्द) अपने अर्थ का संकेतक अवश्य है किन्तु अपने अर्थ के साथ उसका न तदुत्पत्ति सम्बन्ध है और न तदरूपता सम्बन्ध है। जैन दार्शनिक मीमांसकों के समान शब्द और अर्थ में नित्य तथा तद्रूप संबंध स्वीकार नहीं करते हैं। उनकी मान्यता है कि जिस प्रकार हस्त-संकेत आदि अपने अभिव्यंजनीय अर्थ के साथ अनित्य रूप से संबंधित होकर इष्ट अर्थ की अभिव्यक्ति कर देते हैं, उसी प्रकार शब्द संकेत भी अपने अर्थ से अनित्य रूप से संबंधित होकर भी अर्थबोध करा देते हैं। 25 - जैनों के अनुसार शब्द और अर्थ दोनों की विविक्त सत्ताएँ हैं। अर्थ में शब्द नहीं है और न ही . " अर्थ शब्दात्मक ही है, फिर भी दोनों में एक सम्बन्ध अवश्य है। जैन आचार्यों को बौद्धों का यह सिद्धान्त भी मान्य नहीं है कि शब्द और अर्थ में कोई सम्बन्ध ही नहीं है। उनका कथन है कि यदि शब्द का अपने अर्थ से कोई सम्बन्ध ही नहीं माना जायेगा तो समस्त भाषा-व्यवहार की प्रामाणिकता ही समाप्त हो जायेगी और पारस्परिक अभिव्यक्ति का कोई साधन ही नहीं रहेगा। इसीलिए जैन दार्शनिकों ने शब्द और अर्थ में सापेक्ष एवं सीमित वाच्यवाचक सम्बन्ध माना है, जैसे-प्रेम शब्द प्रेम नामक भावना को अभिव्यक्त तो करता है, किन्तु उसमें प्रेम की अनुभूति की सभी गहराइयाँ समाविष्ट नहीं हैं। प्रेम के विविध रूप हैं। प्रेम अनुभूति की प्रगाढ़ता के अनेक स्तर हैं। अकेला प्रेम शब्द उन सबका वाचक तो नहीं हो सकता। एक प्रेमी अपनी प्रेयसी से, एक पुत्र अपनी माता से, एक भाई अपने भाई से और एक मित्र अपने मित्र से 'मैं तुमसे प्रेम करता हूँ'-इस पदावली का कथन करता है। किन्तु क्या उन सभी व्यक्तियों के सन्दर्भ में इस पदावली का एक ही अर्थ होगा? वस्तुतः वे सब समान पदावली का उपयोग करते हुए भी जिस भावप्रवणता को अभिव्यक्त कर रहे हैं, वह भिन्न-भिन्न ही है। दो भिन्न सन्दर्भो में और दो भिन्न व्यक्तियों के लिए एक ही सन्दर्भ में एक शब्द का एक ही अर्थ नहीं हो सकता है। मात्र यही नहीं, एक ही पदावली के सन्दर्भ में वक्ता और श्रोता-दोनों की भावप्रवणता और अर्थग्राहकता भिन्न-भिन्न भी हो सकती है। हम अनेक सन्दर्भो में दूसरों के कथनों को अन्यथा ग्रहण कर लेते हैं। बालक को जब भाषा सिखाई जाती है तो शब्द के उच्चारण के साथ उसे वस्तु भी दिखाते हैं। धीरे-धीरे बालक उनमें संबंध जोड़ लेता है और जब भी उस शब्द को सुनता है, पढ़ता है तो उसे 449 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org