________________ प्रस्तुत में भाव-अभिप्राय-उपयोग से जन्य भाषा भावभाषा है। इस चूर्णिकार के वचन से सिद्ध होता है कि यहाँ भावेन भाषा-भावभाषा ऐसा विग्रह इष्ट है, न कि भाव एवं भाषा-भावभाषा ऐसा कर्मधारयसमासानुकूल विग्रह या बहुब्रीहीसमासानुकूल विग्रह। अतः हम दोनों के ऊपर, अरे! सभी के ऊपर जब शास्त्रकारों का अनुशासन है तब उनके वचन के अनुसार ही अर्थघटना करना मुनासिब है। अनुयोगद्वार आदि सूत्र के अनुसार भी वचन नौ आगम से भाव-भाषास्वरूप ही हैं। अतः कोई दोष नहीं है। यह तो एक दिशासूचन मात्र है।" शब्द प्रमाण नहीं है : बौद्ध के अनुसार-अन्य को बोध कराने के लिए वक्ता उपयोगपूर्वक शब्दोच्चारण करता है, वह भावभाषा है-यह आपका कथन जलमन्थन की तरह निष्फल है, क्योंकि भाषा अर्थ का निर्णय कराने में समर्थ ही नहीं है। भाषा से अर्थ का निर्णय तब हो सकता है, जब भाषा और अर्थ के बीच संबंध हो। अर्थ के बाद असंबद्ध होकर भाषा अर्थ का निर्णय कराये-यह कथमपि संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि अर्थ से असंबद्ध होने पर भाषा या तो सब अर्थ का निर्णय करायेगी या तो एक भी अर्थ का नहीं। इसलिए शब्दों का अर्थ का निर्णय कराने के लिए अर्थ से संबद्ध रहना आवश्यक है, मगर शब्द का अर्थ के साथ संबंध नहीं घटता है। यदि शब्द का अर्थ के साथ तादात्म्य संबंध माना जाए तो वह संगत नहीं है, क्योंकि तब तो लड्डु शब्दोच्चारण से ही मुँह लड्डु से भर जायेगा और शस्त्र शब्द को बोलने पर जीभ कट जायेगी, क्योंकि अर्थ और शब्द अभिन्न हैं। ऐसा स्वीकार अर्थ और शब्द के बीच तादात्म्य संबंध के स्वीकार में निहित रहता है। यदि शब्द का अर्थ के साथ तदुत्पत्ति संबंध माना जाए तो वह भी संगत नहीं है, क्योंकि यदि आप शब्दों को अर्थ का जनक मानेंगे तब धन शब्द का उच्चारण करने से ही धन पैदा हो जायेगा, फिर इस जगत् में कोई दरिद्रनारायण नहीं रहेगा। यदि शब्द को अर्थ से जन्य मानेंगे तब जगत् में घट-पट आदि अनेक अर्थ विद्यमान होने से सदा के लिए शब्द की उत्पत्ति होती रहेगी और सारे जहाँ में कोलाहल ही सदा ' के लिए बना रहेगा। अतः शब्द और अर्थ में जन्यजनकभाव न होने से शब्द में अर्थ के साथ तदुत्पत्तिसंबंध ही संभव नहीं है। तादात्म्य और तदुत्पत्ति के सिवा अन्य कोई संबंध तो शब्द के साथ संभव नहीं है। अतः सिद्ध होता है कि शब्द का अर्थ के साथ कोई संबंध नहीं है। अतः शब्द से प्रतिनियत अर्थ का बोध नहीं हो सकता है। अतएव शब्द में अर्थनिर्णायकत्व और प्रामाण्य नहीं है।58 भाषा के भेद जैन दार्शनिकों ने कथन की सत्यता और असत्यता के प्रश्न पर गम्भीरता से विचार किया है। प्रज्ञापना सूत्र में सर्वप्रथम भाषा को पर्याप्त भाषा और अपर्याप्त भाषा-ऐसे दो भागों में विभाजित किया है। पर्याप्त भाषा वह है, जिसके कथन की सत्यता या असत्यता का निश्चय किया जा सकता है अथवा जिसके स्वरूप का निश्चय हो सके, ऐसी भाषा। और अपर्याप्त भाषा वह है, जिसके कथन की सत्यता या असत्यता का निश्चय नहीं किया जा सकता अथवा जिसके स्वरूप का अवधारण-निश्चय करना नामुमकिन है, वह भाषा अन्य यानी अपर्याप्त है। सम्भवित और सत्यापन के अयोग्य कथन अपर्याप्त भाषा का लक्षण है। यहाँ विवरणकार वाक्यशुद्धि चूर्णि का हवाला देते हैं, जिसका अर्थ है-पर्याप्त भाषा का मतलब है कि जिसके स्वरूप का अवधारण इस तरह हो सके कि 'यह भाषा सत्य ही है' या 'यह भाषा असत्य ही है'। जो भाषा (मिश्र) सत्य भी होती है और मिथ्या भी होती है वह 437 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org