________________ विवरणकार वाक्यशुद्धि चूर्णि का पाठ बताकर उपर्युक्त बात का ही समर्थन करते हैं। वाक्यशुद्धि चूर्णवचन का अर्थ यह है कि जिस अभिप्राय से भाषा उत्पन्न होती है, वह भाषा भावभाषा होती है। अर्थात् अभिप्रायजन्य भाषा भावभाषा होती है। यह कैसे हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जो वक्ता बोलना चाहता है, वह शब्दोच्चारण के पूर्व में ही अपने को मुझे यह बोलना चाहिए-एकसा अभिप्राय से भावित करता है और बाद में वैसे बोलता हुआ दूसरे श्रोताओं को अर्थ का बोध कराता है। भाषा का यही प्रयोजन है कि वह भाषा दूसरों को और अपने के अर्थ का बोध कराती है। चूर्णिकार श्री जिनदासगणि के वचन से भी सिद्ध होता है कि अभिप्राय यानी उपयोग से जन्य भाषा ही भावभाषा है, अनुपयोग से जन्य नहीं। वचन भावभाषा नहीं है-भावभाषा शब्द का अर्थ उपयोगपूर्वक वचनप्रयोग समीचीन नहीं है। . इसका कारण यह है कि जैसे अनुयोगद्वारसूत्र आदि में अग्निविषयक उपयोगरूप भाव को ही आगमतः भाव अग्नि कहा है, वैसे भाषा विषयक उपयोगरूप भाव को ही भावभाषा कहना मुनासिब है। दूसरी बात यह है कि अग्निविषयक उपयोगरूप भाव को ही भावाग्नि मानने में भावाग्नि शब्द की यथार्थता उत्पन्न हो सकती है, क्योंकि भाव ही आग या भावात्मक आग, ऐसा भावाग्नि इस सामसिक पद का विग्रह भी उत्पन्न होता है। इसी तरह भाव ही भाषा ऐसा विग्रह वाक्य भी तब सार्थक हो सकता है जब भाषाविषयक उपयोग को ही भावभाषारूप माना जाए। दूसरी बात यह है कि उपयोग के विषयभूत. वचन को भावभाषा कहने में 'भाव ही भाषा' इस विग्रह वाक्य की उपपति भी नहीं हो सकती है, क्योंकि वचन तो जैन दर्शन में पौद्गलिक होने से द्रव्यात्मक है, भावात्मक नहीं। अतः द्रव्यात्मक वचन को भावभाषा कहने में शब्दार्थ का भी बोध होता है। अतः उपयोग के विषयभूत वचन को भावभाषा कहना युक्त नहीं है बल्कि वचनविषयक उपयोग को ही भावभाषा कहना ठीक है। वचन भावभाषा रूप है-आपकी यह बात ठीक नहीं है। आपके अभिप्राय के अनुसार यदि 'भाव ही भाषा' इस विग्रह वाक्य को अनुमति दी जाए तो आपका बताया हुआ दोष आ सकता है, मगर हमने यहाँ आपका बताया हुआ विग्रह मान्य नहीं किया है। हम तो यहाँ भावेन भाषा-भावभाषा ऐसा विग्रह करते हैं। अतः अब भावभाषा शब्द का अर्थ होगा भावकरणभाषा अर्थात् भाव यानी,उपयोग जिसका असाधारण कारण है ऐसी भाषा। इस विग्रह के अनुसार तो उपयोग से वचन को भावभाषा कहना सुसंगत ही है, क्योंकि वचन का असाधारण कारण उपयोग होता है। उपर्युक्त विग्रहवाक्य के स्वीकार करने से जन्य वचन में भावभाषत्व की उपपति होती है। अतः कोई दोष नहीं है। शंका-अब यह शंका हो सकती है कि आपने मनपसंद रूप से समास का विग्रह करके अपने इष्ट अर्थ की निष्पत्ति आप कर रहे हैं तब तो अन्य कोई बहुब्रीहि समास आदि के अनुकूल ब्रिगह करके अपने इष्ट अर्थ की सिद्धि बिना किसी रोकटोक से कर सकता है, जैसे कि 'भाव ही है, भाषा जिसकी' ऐसा विग्रह करने पर मूक पुरुष भी भावभाषा कहलायेगा, क्योंकि हाव-भाव ही उसकी भाषा होती है। यह तो बकरी को निकालते (?) ऊँट घुस गया। अर्थघटन परिभाषाकार की इच्छा के अनुसार-यहाँ भावभाषारूप समास का विग्रह कैसे करना? इसमें न आपकी इच्छा नियामक है, न हमारी इच्छा नियामक है और न अन्य किसी की इच्छा नियामक है, किन्तु शास्त्र की परिभाषा बनाने वाले शास्त्रकार भगवंतों की ही इच्छा नियामक है। 436 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org