Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ शब्दपरिणाम की संतति-धारा चलती रहेगी। अतः सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से भी निसर्गानन्तर समय में शब्दपरिणाम होने से वह भी भाषा भाषास्वरूप ही है। अतएव यही लक्ष्य ही है, अलक्ष्य नहीं। मगर शब्दपरिणाम के होते हुए भी द्वितीयादि समय में भाष्यमाणत्व न होने से अव्याप्ति दोष का निराकरण नहीं हुआ है। धांची का बैल सो मील चले, फिर भी वहाँ का वहाँ। आप इतने दूर तक सोचते हैं, फिर भी अव्याप्ति से मुक्त नहीं हो पाते हैं।" शंका-इस तरह आप हमारे दाँत खट्टे नहीं कर सकते हैं। अव्याप्ति दोष का निराकरण बहुत सरल है। सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय तक जाने की कोई जरूरत नहीं है। व्यवहार नय से भी अव्याप्ति का निराकरण हो जाएगा। यहाँ नैश्चयिक सूक्ष्मसमरूप वर्तमान काल को लेने की आवश्यकता नहीं है। व्यावहारिक वर्तमान काल का ग्रहण ही उचित है। यह व्यावहारिक वर्तमान समय तो निसर्ग समय में और निसर्ग समय के बाद तीन समय तक भी रहेगा ही, क्योंकि सूक्ष्म समय व्यवहार्य नहीं है। अतः स्थूल वर्तमान काल को लेकर वर्तमानकालीन प्रयत्न विषयत्वरूप भाष्यमाणत्व, जो कि भावभाषा के लक्षणरूप से इष्ट है, निसर्गोत्तर काल में भी भिन्न भाषाद्रव्य में रहेगा। अतः अव्याप्ति दोष नहीं है। समाधान-तुम किस खेत की मूली हो? हमने सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय का भी खंडन कर दिया, फिर व्यवहार नय की तो बात ही क्या? स्थूल व्यावहारिक वर्तमान काल लेने पर भी अव्याप्ति दोष तद्वस्थ ही है। देखिए, आप स्थूल कालरूप वर्तमानकाल कितने समय का मानेंगे? आपसे कल्पित-विवक्षित स्थूलकालरूप वर्तमानकाल में चरमसमयपर्यन्त भाषाद्रव्यों के निसर्ग में जीव प्रयत्न करेगा तब आपका विवक्षित स्थूलकालरूप वर्तमानकाल समाप्त हो जायेगा, मगर उसके बाद वे भिन्न भाषाद्रव्य लोक में व्याप्त हो तब तक उनमें भाषा का परिणाम तो अवश्य रहेगा ही, लेकिन उस वक्त आपका विवक्षित स्थूल कालात्मक वर्तमानकाल खत्म हो चुका होगा। इसलिए उस वक्त भाष्यमाणत्व-स्थूलवर्तमानकालिक प्रयत्नविषयत्व उन भिन्न भाषाद्रव्यों में न होने से अव्याप्ति दोष फिर आयेगा ही। बंदर ठेर का ठेर। भाष्यमाण भाषा-सिद्धान्त क्रियारूप भावभाषा के उद्देश्य से है। 'सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे-ऐसा मार्ग लेने से कोई बाधा नहीं होती' ऐसा सोचकर उपाध्याय यशोविजय ने भाषारहस्य ग्रंथ में कहा है-भावभाषा दो प्रकार की है-1. क्रियारूप भावभाषा, 2. परिणाम रूप भावभाषा। क्रिया शब्द से यहाँ निसरण क्रिया ग्राह्य है और परिणाम शब्द से शब्द परिणाम ग्राह्य है। भाष्यमाण भाषा सिद्धान्त वचन में निसर्ग क्रियारूप भावभाषा अभिप्रेत है, शब्दपरिणामरूप भावभाषा नहीं। तात्पर्य यह है कि जो निसर्ग क्रियारूप भावभाषा है, वह भाष्यमाण-वर्तमानकालीन प्रयत्न की विषयभूत होती है, अविषयभूत नहीं। यहाँ यह शंका कि भाषा परिणामस्वरूप भावभाषा को छोड़कर निसरण क्रियारूप भावभाषा का ही ग्रहण क्यों किया? यह तो अर्धजातीय न्याय है, करना मुनासिब नहीं है, क्योंकि शब्दोच्चारण क्रियारूप भावभाषा का ग्रहण करने पर ही भाषाशब्द के अर्थ की उत्पत्ति होती है। भाषा शब्द का अर्थ है-कंठ, तालु आदि के अभिघात से शब्द का उत्पादक व्यापार। यह अर्थ तभी घटता है जब भाषा शब्दोच्चारण क्रियारूप ली जाए। शब्दपरिणामरूप भावभाषा का ग्रहण करने पर भाषा शब्द के अर्थ की उपपति नहीं हो सकती है। यहाँ यह संदेह हो सकता है कि भावभाषा के इस तरह क्रियारूप और परिणामरूप दो विभाग करने की अपेक्षा से उचित तो यह है कि निसर्ग काल के बाद भिन्न भाषाद्रव्यों में शब्दपरिणाम को ही स्वीकार न किया जाए। जब निसरण क्रिया के काल के बाद में भिन्न भाषाद्रव्य में शब्द परिणाम 434 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org