Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ ___ उपाध्याय यशोविजय ने मित्राद्वांत्रिंशिका393 में बताया है कि इस दृष्टि में दर्शन की मंदता, अहिंसादि यमों का पालन करने की इच्छा और देवपूजादि धार्मिक अनुष्ठानों में अखेदता होती है। यद्यपि इस दृष्टि में साधक को ज्ञान तो प्राप्त होता है, तथापि उस ज्ञान से स्पष्ट तत्त्वबोध नहीं होता, क्योंकि मिथ्यात्व अथवा अज्ञान इतना घना होता है कि वह दर्शन, ज्ञान पर आवरण डाल देता है। इसलिए साधक को तात्विक एवं पारमार्थिक ज्ञान का बोध नहीं हो पाता है। वह अल्पस्थितिक होती है। माध्यस्थादि भावनाओं का चिंतन करने और मोक्ष की कारणभूत सामग्रियों को जुटाते रहने के कारण इसे योगबीज भी कहा गया है। ___ इस दृष्टि को उपमा देते हुए उपाध्याय यशोविजय ने आठ दृष्टि की सज्झाय में कहा है एह प्रसंग की थी मे कहो, प्रथम दृष्टि हवे कहीये रे। 'जिहां मित्रा तिहां बोध जे, तण अग्निश्यो लहीये रे।। -वीर जिनेश्वर देराना95 इस दृष्टि की तुलना घास की अग्नि में अंगारों के प्रकाश से की जाती है अर्थात् इस दृष्टिकाल में ज्ञान-बोध होता है, वह तृणाग्नि समान होता है। - महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पाँच यमों का प्रतिपादन किया है। पतंजलि योग के समान उपाध्याय यशोविजय ने भी यम के पाँच प्रकार का उल्लेख आठ दृष्टि की सज्झाय में किया है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहता रूप पांच यम की प्राप्ति होती है। यहां से दया के बीज शुरू होते हैं। मिथ्यादृष्टि में कौन-से तीन गुण की प्राप्ति होती है, वो दिखाते हुए उपाध्याय यशोविजय ने कहा है व्रत पण यम इहां संपमे, खेर नहीं शुभ काजे रे। द्वेष नहीं वली अवरशुं, एह गुण अंग विराजे रे / / -वीर जिनेश्वर देराना। इस दृष्टि में पांच व्रतों रूप यम की प्राप्ति, खेद दोष का त्याग और अद्वेष गुण की प्राप्ति होती है। संक्षेप में इस दृष्टि में साधक आत्मा के विकास की इच्छा तो करता है, परन्तु पूर्वजन्म के संस्कारों . अर्थात् कर्मों के कारण वैसा कर नहीं पाता। मिथ्यादृष्टि में आत्मगुणों में एक संस्कृति की दशा उत्पन्न होती है। अंतरविकास की दिशा में - वह पहला उद्वेलन है। यद्यपि यहाँ प्रथम गुणस्थानक की स्थिति होती है, दृष्टि सम्रूक् नहीं हो पाती, किन्तु आत्म-जागरण की यात्रा का यहाँ से शुभारम्भ होता है।397 मिथ्यादृष्टि गुणस्थानक का गुणस्थानक ऐसा नाम जो प्रवर्तना है, वो दशा को प्राप्त जीवों को आश्रयी यथार्थता को प्राप्त करता है। यहाँ से आत्म-विकास की यात्रा शुरू होती है। अब यह जीव को मोक्षमार्ग का पथिक कह सकते हैं। 2. तारादृष्टि मित्रा आदि दृष्टियां क्रमशः बोध ज्योति की उत्तरोत्तर स्पष्ट होती हुई स्थितियों के साथ जुड़ी हुई हैं। मित्रादृष्टि में बोध ज्योति के उद्भास का शुभारम्भ होता है। तारादृष्टि में बोध ज्योति मित्रादृष्टि की अपेक्षा कुछ स्पष्ट होती है। 385 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org