________________ ध्यानदशा में ज्ञान मुख्य होता है और व्यवहारदशा में क्रिया मुख्य होती है, इसलिए आगे यशोविजय की दृष्टि में क्रियायोग का वर्णन है। 3. क्रियायोग ज्ञानस्य फल विरति ज्ञान का फल विरति है। क्रिया बिना ज्ञान निरर्थक है। यह गधे द्वारा चंदन का भार ढोने के समान है। क्रिया सहित ज्ञान ही हितकारी है। उपाध्याय यशोविजय ने क्रियायोग का वर्णन करते हुए कहा है क्रिया विरहितं हन्तः ज्ञानमात्रमनर्थकम्। गति विना पथज्ञोऽपि नाप्नोति पुरमीप्सितम्।।480 . क्रिया रहित अकेला ज्ञान मोक्षरूपी फल को साधने के लिए असमर्थ है। मार्ग को जानने वाला भी कर्म आगे बढ़ाये अर्थात् गति बिना इच्छित नगर में नहीं पहुंच पाता है। जहाँ क्रिया होती है, वहाँ ज्ञान होता है और जहाँ ज्ञान होता है, वहाँ क्रिया होती है। पुष्प में जैसे सुगंध समाई हुई है, नमक में जैसे खारापन रहा हुआ है, वैसे ही ज्ञान में क्रिया समाविष्ट है। यह बात जरूर है कि एक गौणरूप में है तो दूसरा प्रधानरूप में है।। नाणचरणेण मुक्खो -ज्ञान सहित चारित्र द्वारा ही मोक्ष होता है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए उपाध्याय यशोविजय कहते हैं-दीपक स्वयं प्रकाशरूप है तो भी जैसे तेल डालना आदि क्रिया करनी पड़ती है, उसी प्रकार स्वयं के स्वभाव में स्थित रहने की क्रिया तो पूर्णज्ञानी को ही करना जरूरी है।81 उपाध्याय यशोविजय ने कहा है-गुणवृद्धि के लिए अथवा स्खलना न हो इसलिए क्रिया करनी ... चाहिए। एक अखण्ड संयम स्थान तो जिनेश्वर भगवंत को ही होता है। सभी कर्मों के क्षय के लिए * ज्ञान और क्रिया का समुच्चय जरूरी है। गुणों की पूर्णता प्राप्त न हो तब तक शास्त्रोक्त क्रिया करने योग्य है। संक्षेप में अपुनर्बन्धक आदि जीवों में क्रियायोग का बीज होता है, किन्तु क्रियायोग नहीं होता है। अविरत सम्यग्दृष्टि को प्रतिक्रमण आदि क्रियायोग संभव होने पर भी क्रियायोग की शुद्धि संभव नहीं है। क्रियायोग की शुद्धि पांचवें गुणस्थानक से शुरू होती है। कर्मयोग और ज्ञानयोग इमारत के समान है तथा साम्ययोग नींव के समान है। यदि नींव के बिना इमारत बनाएं तो वह टिक नहीं सकती है, उसी प्रकार साम्ययोग रूपी नींव के बिना ज्ञान और क्रियारूपी इमारत की महत्ता नहीं है। इसलिए अब साम्ययोग का वर्णन किया जा रहा है। 4. साम्ययोग प्रत्येक कार्य का कोई-न-कोई हेतु अवश्य होता है। यह प्राचीन कहावत है कि-प्रयोजन बिना मूर्ख भी प्रवृत्ति नहीं करता है। जैसे व्यापार करने का हेतु धन कमाना है। यदि व्यापार में मुनाफा नहीं मिला तो की हुई मेहनत या पुरुषार्थ व्यर्थ है, ठीक वैसे ही ज्ञान भी प्राप्त किया, तप, जप, व्रत आदि क्रियाएँ भी की, किन्तु साम्ययोग को नहीं साधा, समता प्राप्त नहीं की तो सब व्यर्थ है। मोक्षमार्ग में केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिए साधने योग्य सर्वश्रेष्ठ वस्तु समता है। समभाव के बिना सभी क्रियाएँ वस्तुतः छाट पर लीपण जैसी है। 397 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org