________________ पं. सुखलालजी तत्त्वार्थसूत्र की विवेचना में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि मतिज्ञान में शब्दोल्लेख नहीं होता है और श्रुतज्ञान में होता है। अतएव दोनों का फलित लक्षण यह है कि जो ज्ञान इन्द्रियजन्य और मनोजन्य होने पर भी शब्दोल्लेख सहित है, वह श्रुतज्ञान है और जो शब्दोल्लेख रहित है, वह मतिज्ञान है। शब्दोल्लेख के तात्पर्य को स्पष्ट करते हुए आगे वे लिखते हैं कि शब्दोल्लेख का मतलब व्यवहारकाल में शब्दशक्तिग्रह जन्यत्व से है अर्थात् जैसे श्रुतज्ञान की उत्पत्ति के समय संकेत, स्मरण और श्रुतग्रन्थ का अनुसरण अपेक्षित है, वैसे ही ईहा आदि मतिज्ञान की उत्पत्ति में अपेक्षित नहीं है। अतः यह भी कहा जा सकता है कि जो ज्ञान भाषा में उतारा जा सके, वह श्रुतज्ञान और जो ज्ञान भाषा में उतारने लायक परिपात्र भी प्राप्त न हो, वह मतिज्ञान है। श्रुतज्ञान खीर है तो मतिज्ञान दूध / श्रुतज्ञान को भी जैनाचार्य ने दो भागों में विभक्त किया है-1. अक्षरश्रुत, 2. अनक्षरश्रुत। यद्यपि यहाँ यह प्रश्न उठता है कि यदि श्रुतज्ञान भाषा से संबंधित है तो फिर अनक्षरश्रुत का क्या अर्थ होगा? वह तो मतिज्ञान का ही रूप होगा। इस सम्बन्ध में जैन मान्यता यही है कि जब ज्ञाता स्वयं जानता है तो अनक्षर श्रुत है और जब दूसरों को ज्ञान कराता है अथवा दूसरों से ज्ञान प्राप्त करता है तो वह अक्षरश्रुत है। स्वयं ज्ञान करने में भाषा का प्रयोग होता है, निजी अक्षरों का उच्चारण नहीं होता है अतः वह अनक्षर श्रुत है। अनक्षर का अर्थ भाषा रहित नहीं बल्कि शब्दोच्चारण से रहित होना है। अनक्षर श्रुत का दूसरा अर्थ यह होता है कि उसमें शब्दों के अतिरिक्त अन्य संकेतों का अर्थबोध कराया जाता है, क्योंकि इसमें शब्दों का प्रयोग नहीं है, फिर भी अर्थबोध है। अतः यह अनक्षर श्रुत है। अतः संकेत की व्यक्तता और अव्यक्तता ही श्रुतज्ञान और मतिज्ञान के भेद का आधार है। ' मतिज्ञान में भाषा का कोई स्थान ही नहीं है, यह मान्यता भी उचित नहीं है। मेरी दृष्टि में अवग्रह . को छोड़कर ईहा आदि मतिज्ञान में अन्य सभी रूप भी भाषा से संबंधित है, क्योंकि ज्ञान के क्षेत्र में जहाँ चिन्तन या विचार का प्रारम्भ होता है, वहाँ स्वाभाविक रूप से भाषा आ ही जाती है। इस प्रकार श्रुतज्ञान के साथ ही मतिज्ञान में भी अवग्रह के पश्चात् की समस्त प्रक्रिया भाषा से संबंधित है, क्योंकि वह चिन्तन एवं विमर्श से युक्त है। यह एक अद्भुत सत्य है कि मनुष्य में जो भी सोचने-विचारने की प्रक्रिया घटित होती है, वह भाषा में घटित होती है, उससे अन्यथा नहीं। भाषा के बिना चिन्तन और मनन संभव ही नहीं है। अतः निर्विशेष और निर्विकल्प इन्द्रियानुभूति और आत्मानुभूति को छोड़कर शेष सभी ज्ञानात्मक व्यवहार भाषा पर आधारित है। इस प्रकार जैनों का मतिज्ञान भी किसी सीमा तक भाषा से संबंधित है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन दर्शन में मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल-इन पाँच ज्ञानों में आंशिक रूप से मतिज्ञान और पूर्णरूप से श्रुतज्ञान भाषा से संबंधित है। मात्र अवधि, मनःपर्यव और केवल-ये तीन ज्ञान अपरोक्ष आत्मानुभूति के रूप में भाषा से संबंधित नहीं हैं। मतिज्ञान में मात्र व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह ही ऐसे हैं जो भाषा से संबंधित हैं, क्योंकि इनमें संशय, चिंतन और विमर्श होता है और ये सभी बिना भाषा के संभव नहीं हैं। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के अनुसार भी चिन्तन अव्यक्त भाषा व्यवहार ही है। ___अतः हम कह सकते हैं कि जैन दर्शन में विचार और भाषा अपरिहार्य रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। बिना भाषा के विचार एवं चिन्तन सम्भव नहीं है। अतः भाषा का प्रयोजन भाषा, भाषारहस्य, भाषादर्शन एवं भाषा-विशुद्धि का ज्ञान होना अनिवार्य ही नहीं बल्कि आवश्यक है। 425 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org