Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ कहना अथवा किसी भूतपूर्व विधायक को तथा वर्तमान में विधायक का चुनाव लड़ रहे व्यक्ति को विधायक कहना-ये सभी द्रव्य निक्षेप के उदाहरण हैं। लोक-व्यवहार में हम इस प्रकार की भाषा के अनेकशा प्रयोग करते हैं, यथा वह घड़ा जिसमें कभी घी रखा जाता था, वर्तमान काल में चाहे वह घी रखने के उपयोग में न आता हो फिर भी घी का घड़ा कहा जाता है। भाव निक्षेप ___जिस अर्थ में शब्द का व्युत्पत्ति या प्रवृत्ति निमित्त सम्यक् प्रकार से घटित होता हो, वह भाव-निक्षेप है, जैसे-किसी धनाढ्य व्यक्ति को लक्ष्मीपति कहना, सेवाकार्य कर रहे व्यक्ति को सेवक कहना आदि। वक्ता के अभिप्राय अथवा प्रसंग के अनुरूप शब्द के वाच्यार्थ को ग्रहण करने के लिए निक्षेपों की अवधारणा का बोध होना आवश्यक है। उदाहरण के रूप में किसी छात्र को कक्षा में प्रवेश करते समय कहा गया-राजा आया, इस कथन का वाच्यार्थ किसी नाटक में मंच पर किसी पात्र को आते हुए देखकर कहा गया-राजा आया, इस कथन के वाच्यार्थ से भिन्न है। प्रथम प्रसंग में 'राजा' शब्द का वाच्यार्थ है-राजा नामधारी छात्र है, जबकि दूसरे प्रसंग में राजा शब्द का वाच्यार्थ है-राजा का अभिनय करने वाला पात्र। आज भी हम महाराजा बनारस और महाराजा ग्वालियर शब्दों का प्रयोग करते हैं, किन्तु आज इन शब्दों का वाच्यार्थ वह नहीं है, जो सन् 1947 के पूर्व था। वर्तमान में इन शब्दों का वाच्यार्थ द्रव्य-निक्षेप के आधार पर निर्धारित होगा, जबकि सन् 1947 के पूर्व वह भावनिक्षेप के आधार पर निर्धारित होता था। राजा शब्द कभी राजा नामधारी व्यक्ति का वाचक होता है तो कभी राजा का अभिनय करने वाले पात्र का वाचक होता है। कभी वह भूतकालीन राजा का वाचक होता है तो कभी वह वर्तमान में शाकार करने वाले व्यक्ति का वाचक होता है। निक्षेप का सिद्धान्त हमें यह बताता है कि हमें किसी शब्द के वाच्यार्थ का निर्धारण कर उसके कथन प्रसंग के अनुरूप ही करना चाहिए, अन्यथा अर्थबोध में अनर्थ होने की संभावना बनी रहेगी। निक्षेप का सिद्धान्त शब्द के वाच्यार्थ के सम्यक् निर्धारण का सिद्धान्त है, जो कि जैन दार्शनिकों की अपनी एक विशेषता है। द्रव्य भाषा लक्षण उपाध्याय यशोविजय ने द्रव्यभाषा का लक्षण बताते हुए कहा है- 'वस्तु तस्तु भावभाषाभिन्नत्वे सति भावभाषाजनकत्वस्यैय स्वरूपतो द्रव्यभाषा लक्षणम्' अर्थात् ग्रहणादि तीन भाषा विवक्षा से द्रव्यभाषा नहीं है किन्तु स्वरूपतः द्रव्यभाषा है। भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्यभाषा का निरूपण करते हुए विवरणकार ने कहा कि तद्व्यतिरिक्त द्रव्यभाषा के तीन भेद हैं 1. ग्रहण द्रव्यभाषा, 2. निसरण द्रव्यभाषा, 3. पराघात द्रव्यभाषा। 1. ग्रहण-तद्व्यतिरिक्त द्रव्यभाषा के प्रथम भेद का निरूपण करते हुए ग्रंथकार कहते हैं-काययोग से परिणत आत्मा भाषा-परिणमन योग्य द्रव्यों को ग्रहण करके जब तक उनका त्याग नहीं करता है, तब तक वे भाषा द्रव्य की आगम से तद्व्यतिरिक्त ग्रहणद्रव्यभाषा कहे जाते हैं। हृदय, कंठ आदि शब्द 428 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org