________________ उपाध्याय यशोविजय ने ज्ञानसार में कहा है कि ध्यानरूप वृष्टि से दयारूपी नदी में साम्य या समतारूपी तूफान आने पर नदी के किनारे पर रहे हुए विकार रूपी वृक्ष जड़ से नष्ट हो जाते हैं, बह जाते हैं।48 साम्ययोग का वर्णन करते हुए अध्यात्मसार में यशोविजयजी ने कहा है-स्वर्ग का सुख तो दूर है और मोक्ष का सुख तभी बहुत दूर है, परन्तु समता का सुख तो हमारे मन के भीतर ही रहा हुआ है, जिसे स्पष्ट रूप से अनुभव कर सकते हैं। अध्यात्मोपनिषद् में उपाध्याय ने कहा है कि समतारूपी सागर में डुबकी लगाने वाले योगी को बाह्य सुख में आनन्द ही नहीं आता है। जिसके घर में कल्पवृक्ष प्रकट हो गया हो, वह अर्थ का इच्छुक व्यक्ति धन के लिए बाहर क्यों भटके?485 संक्षेप में साम्यभाव तो अभव्य आदि में भी हो सकता है, किन्तु साम्ययोग नहीं हो सकता। अप्रबन्ध क जीवों को साम्ययोग संभव हो सकता है, क्योंकि इनका साम्यभाव इनको मोक्ष के साथ जोड़ने में सहायक बनता है, लेकिन हेय, उपादेय आदि का सम्यग्ज्ञान तथा स्वानुभूति नहीं होने के कारण इनके साम्ययोग में शुद्धि नहीं होती है। वादे-वादे जायते तत्त्वबोधः के अनुसार इस विषय के सूक्ष्म अध्ययन एवं अनुशीलन से तात्विक बोध के रूप में साधक को एक अन्तःस्फूर्ति प्राप्त होती है, जिसके द्वारा वह अपने मंतव्यानुसार गंतव्य पर अग्रसर होता हुआ प्राप्य को प्राप्त कर लेता है और साध्य को सिद्ध कर लेता है। सन्दर्भ सूची 2. अभिधान राजेन्द्र कोश, पृ. 3/246 कर्मविपाक, हिन्दी अनुवाद, प्रस्तावना, पृ. 23 लोकतत्त्व निर्णयः, श्लोक 62 श्रीमद्भगवद्गीता, 3/6 षड्दर्शन समुच्चय, का. 64 श्री अभिधान राजेन्द्रकोश, भाग-3, पृ. 255 श्रीस्थानांगसूत्र, स्था. 1 श्रीसूत्रकृतांग सूत्र, श्रुत-1, अ. 1 अभिधान राजेन्द्र कोश, पृ. 3/241 वही, पृ. 3/245; कर्मग्रंथ, 1/1 कर्मग्रंथ, 1/1 लोकतत्त्व निर्णय, श्लोक-12 कम्मपयडी टीका-उपाध्याय यशोविजय योगबिन्दु-श्री हरिभद्रसूरि, श्लोक-305 योगबिन्दु टीका, श्लोक 305, 306 15. 398 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org