________________ अध्यात्मसार में योगाधिकार एवं ध्यानाधिकार प्रकरण में मुख्यतः गीता एवं पातंजल योगसूत्र के विषयों के सन्दर्भ में जैन योग परम्परा के प्रसिद्ध ध्यान के भेदों का समन्वयात्मक विवेचन है। अध्यात्मोपनिषद् में भी शास्त्रयोग, ज्ञानयोग, क्रियायोग एवं साम्ययोग पर समुचित प्रकाश डाला है। औपनिषदिक एवं योगवाशिष्ठ की उद्धरिणियों के साथ जैन दर्शन की तात्विक समानता दिखलाई गई है। योगावतार बत्तीशी में 32 प्रकरण हैं, जिसमें आचार्य हरिभद्र के योग ग्रंथों की ही विस्तृत एवं स्पष्ट व्याख्या प्रतिपादित है। पातंजल योगसूत्र के सन्दर्भ में जैन योग का विश्लेषण एवं विवेचन इस ग्रंथ का प्रतिपाद्य है। प्रसंगवश दोनों परम्पराओं के योगों में समानता एवं असमानता पर भी प्रकाश डाला गया है। योगविंशिका में योगसूत्रगत समाधि की तुलना जैन ध्यान से की गई है। आठ दृष्टि की सज्झाय में आठ दृष्टियों का सम्यक् विवेचन प्रस्तुत है। इन सभी ग्रंथों में उन्होंने योगतत्त्व का सांगोपांग प्रतिपादन किया है। इतना ही नहीं, उनके समय में भिन्न-भिन्न धर्म-परम्पराओं में योगविषयक जो साहित्य रचा गया और जो उपलब्ध है, उसमें साहित्य की दृष्टि से भी अध्यात्मसार और अध्यात्मोपनिषद् ग्रंथ निराले हैं। प्राचीन जैनागमों में प्रतिपादित ध्यान-विषयक समग्र विचारसरणि से उपाध्याय यशोविजय सुपरिचित थे। साथ ही वे सांख्य, योग, शैव, पाशुपत और बौद्ध आदि परम्पराओं के योगविषयक प्रस्थानों से भी विशेष परिचित एवं ज्ञाता थे। अतः उनकी चिन्तनधारा किसी विशाल दृष्टिकोण को लेकर चली। भिन्न-भिन्न परम्पराओं में योगत्व के विषय में मात्र मौलिक समानता ही नहीं, किन्तु एकता भी है। ऐसा होने पर भी उन परम्पराओं में जो अन्तर माना या समझा जाता है, उनका निवारण करना। यशोविजय ने देखा कि सच्चा साधन भले किसी भी परम्परा का हो, उसका आध्यात्मिक विकास तो एक ही क्रम से होता है। उसके तारतम्ययुक्त सोपान अनेक हैं परन्तु विकास की दिशा तो एक ही होती है। अतः भले ही उसका प्ररूपण विविध परिभाषाओं में हो, विभिन्न शैली में हो, परन्तु प्ररूपणा का आत्मा तो एक ही होगा। यह दृष्टि उनकी अनेक योगग्रंथों के अवगाहन के फलस्वरूप बनी होगी। उपाध्याय यशोविजय का योगचतुष्ट्य 1. शास्त्रयोग - कोई व्यक्ति रास्ते से गुजर रहा हो, और मार्ग पर अंधकार हो, साथ ही प्रकाश की व्यवस्था न हो तो वह भटक जाता है, अपने इष्ट स्थान पर पहुंच नहीं सकता। यह संसार भी अज्ञानरूपी अंधकार से घिरा हुआ है, लेकिन जिसके हृदय में, दिल में शास्त्ररूपी दीपक है, तो वह अपने इष्ट स्थान पर पहुंच जाता है। उपाध्याय यशोविजय ने ज्ञानसार में कहा है-“सामान्यतः मनुष्य चमड़े की आंख वाले होते हैं। देवता अवधि ज्ञानरूपी चक्षु वाले होते हैं। सिद्ध सर्वत्र चक्षु वाले अर्थात् केवल ज्ञानरूपी चक्षु वाले होते हैं और साधु आगम (शास्त्र) रूपी चक्षु वाले होते हैं। समयसार में भी साधुओं को आगमरूपी चक्षु वाले कहा है।72 साक्षात् परमात्मा की अनुपस्थिति में जीवों के लिए उनकी वाणी का ही आधार है, इसलिए उपाध्याय यशोविजय ने योगचतुष्ट्य में सर्वप्रथम शास्त्रयोग का वर्णन किया है व शास्त्र शब्द का व्युत्पत्ति अर्थ बताते हुए कहते हैं कि जो हितोपदेश करे और जिसमें रक्षण करने का सामर्थ्य हो, उसे पण्डित ने शास्त्र कहा है। इन शास्त्रों में वीतराग के वचन हैं, किसी अन्य के नहीं। 395 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org