Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
View full book text
________________ उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मसार*25 में तथा विनयविजय ने श्री पुण्यप्रकाश स्तवन में इन भावों को प्रस्तुत किया है। 5. स्थिरा दृष्टि स्थिरा दृष्टि प्राप्त होने पर दर्शन या श्रद्धा नित्य अप्रतिपाती हो जाती है। फिर वह मिटती नहीं है। योग का पांचवां अंग प्रत्याहार वहीं सिद्ध होता है। उपाध्याय यशोविजय ने स्थिरादृष्टि को परिभाषित करते हुए कहा है दृष्टि थिरा मांहे दर्शन, नित्ये रतनप्रभा सम जाणो रे। भ्रान्ति नही वली बोध ते, सूक्ष्म प्रत्याहारा वरवाणो रे।।128 स्थिरा नाम की पांचवी दृष्टि में रत्न की प्रभा समान बोध होता है। भ्रान्ति दोष का त्याग, सूक्ष्मबोध नामक गुण की प्राप्ति एवं प्रत्याहारा नाम के योगांग की प्राप्ति होती है। इस दृष्टि में रत्न इस स्थिति में राग-द्वेष की ग्रंथी का भेदन होता है, जिससे लौकिक घटना में बच्चों के मिट्टी के घरों के समान ये ग्रंथी रहती है। - पतंजलि योग में प्रत्याहार का पांचवां स्थान है। इन्द्रियों की बाह्य वृत्ति को सब ओर से खींचकर मन में विलीन करने का अभ्यास प्रत्याहार है। ज्ञानेन्द्रिय का कार्य अपने-अपने विषयों में रत होना है, किन्तु उससे एकाग्र न होना यह मन का भाव प्रत्याहार है। प्रत्याहार का वर्णन करते हुए व्यास कहते हैं कि मधुमक्खी जिस तरह राज मक्खी का अनुसरण करते हुए उठती-बैठती, उसी तरह ज्ञानेन्द्रियां मन का आज्ञानुसार चलती रुकती है। . भोगों को भोग लेने से इच्छा नष्ट हो जायेगी, यह सोचना उसी प्रकार व्यर्थ है, जैसे कोई भारवाहक गट्ठर को अपने एक कंधे से हटाकर दूसरे कंधे पर रखे और सोचे, वह भारमुक्त हो गया है। ठीक वैसे ही स्थिर दृष्टि में स्थित साधक का चिंतन इस दिशा में विशेष रूप से अग्रसर होता है। - इस प्रकार की दृष्टि में सम्यक्त्व आ जाने पर आस्था स्थिर हो जाती है, विश्वास सुदृढ़ हो जाता है तथा जीव दर्शन प्रत्याहार से युक्त कृत्य, अभ्रान्त, निर्दोष एवं सूक्ष्मबोध वाला हो जाता है। जिस प्रकार रत्न का प्रकार कभी मिटता नहीं है, उसी प्रकार स्थिरदृष्टि में प्राप्त बोध नष्ट नहीं होता और साधक का बोध सद्अभ्यास, सचिन्तन आदि के द्वारा उज्ज्वल से उज्ज्वलतर होता जाता है। 6. कान्तादृष्टि यह छठी दृष्टि है। योगदृष्टि की दूसरी दृष्टि है। उपाध्याय यशोविजय ने कान्तादृष्टि को परिभाषित करते हुए कहा है किछट्ठी दिट्ठी रे हवे कान्ता कहुँ, तिहां ताराभ प्रकाश। दढ होये, धारणा नहीं अन्यश्रुत नो संवास।। इस दृष्टि में तारा के प्रकाश समान ज्ञान-बोध होता है। तत्त्वमीमांसा नाम के गुण की प्राप्ति होती है। अन्यश्रुत का सहवास नाम का दोष नहीं होता है। धारणा नाम का योगांग प्रवर्तमान होता है। इस दृष्टि में विद्यमान योगी के व्यक्तित्व में एक ऐसी विशेषता आ जाती है कि उसके सम्यक् दर्शन आदि उत्तमोत्तम गुण औरों को सहज ही प्रीतिजनक प्रतीत होते हैं। उसे देखकर दूसरों के मन 389 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org