________________ संक्षेप में उपाध्याय यशोविजय की योगदृष्टियों को दो विभागों में विभाजित किया जा सकता है। प्राथमिक योग में प्रथम की चार दृष्टियां समाविष्ट होती हैं। इन्हें ओघदृष्टियां या मिथ्यादृष्टियां भी कहते हैं। यहाँ साधक मिथ्यात्व लिये रहता है और सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए बहुत प्रयत्नशील रहता है। ये चार दृष्टियाँ गुणहीन होती हैं तथा अन्तिम की चार दृष्टियों में योगी मोक्ष का सच्चा स्वरूप समझ जाता है। मोक्ष प्राप्ति की तीव्र अभिलाषा बनती है। यम-नियम के पालन में दृढ़ता आती है तथा उत्तरोत्तर विकास साधता है। योग की परिलब्धियाँ जैसा कि पहले बताया गया है-योगी तप, आसन, प्राणायाम, समाधि, ध्यान आदि द्वारा योग सिद्धि करता है अथवा मोक्षाभिमुख होता है। साधना के क्षेत्र में योगसाधक चिरकाल से उपार्जित पापों को वैसे ही नष्ट कर देता है, जैसे इकट्ठी की हुई लकड़ियों को अग्नि क्षणभर में भस्म कर देती है।53 योग-साधना के ही क्रम में अनेक चमत्कारी शक्तियों का भी उदय होता है, जिन्हें लब्धियां कहते हैं। __योग का सामर्थ्य बल ही ऐसा है कि मुनियों के योग के सामर्थ्य बल से रत्नादि विशिष्ट लब्धियां प्राप्त होती हैं। ऐसा योग संबंधी जैन-जैनेत्तर लब्धियों का वर्णन वैदिक, बौद्ध एवं जैन योग में क्रमशः विभूति, अभिज्ञा तथा लब्धियों के रूप में मिलता है और कहा है कि लब्धियों का उपयोग लौकिक कार्यों में करना वांछित नहीं है। साधक इन लब्धियों का उपयोग अभिमान, स्वार्थ वैद को पुष्ट करने के लिए नहीं करता, बल्कि मात्र परोपकार ही करते हैं। मनुष्य धन के अभाव में अनेक कल्पनाओं में खो जाता है। यदि धन-प्राप्ति हो जाए तो देश-विदेश में भ्रमण करूं, गाड़ी में बैठकर आनन्द का उपभोग करूं और विशिष्ट धन की प्राप्ति हो जाए तो प्लेन द्वारा देश-विदेश में घूम जाऊँ, उसी प्रकार जीव की जब तक इच्छाएँ पूर्ण नहीं होती, तब तक अभिलिप्साएँ बढ़ती जाती हैं। यदि मुझे वैक्रिय शरीर मिले तो सभी जगह धूम जाऊँ, आहारक शरीर मिले तो सीमंधर स्वामी के पास पहुंच जाऊँ, आकाशगामिनी लब्धि मिले तो नंदीज्वर द्वीप पहुंच जाऊँ, परन्तु योगदशा के बिना प्रायः ऐसी लब्धियां अलभ्य हैं। योग का सामर्थ्य जब प्रगट होता है तब योग के बल से ये लब्धियां उत्पन्न होती हैं। परन्तु उस समय भोगी के समान लिप्सा ही समाप्त हो जाती है। इसलिए महात्मा पुरुष लब्धियों का उपयोग नहीं करते हैं। प्रसंग आता है, तभी करते हैं। विष्णु कुमार के पास वैक्रिय लब्धि थी, परन्तु नमुचि का प्रसंग आया तब ही उपयोग किया। वज्रस्वामी के पास आकाशगामिनी विद्या थी परन्तु पालितणा में पुष्पपूजा का प्रसंग आया तो ही उपयोग किया। पूर्वधरों के पास आहारक लब्धि होती है। परन्तु प्रश्नोत्तरादि का प्रसंग होता है तब ही उपयोग करते थे। अर्थात् लब्धि की प्राप्ति सातवें गुणस्थानक में होती है, परन्तु जब उपयोग करता है तब अप्रमत्त गुणस्थान में आता है। जैसे-जैसे विशिष्ट योग का सामर्थ्य विकसित होता है, वैसे-वैसे रत्नादि लब्धियां, चित्र-विचित्र ऐसी अणिमादी लब्धियां तथा आमदैषधि आदि लब्धियां उत्पन्न होती हैं।455 वैदिक योग में लब्धियाँ उपनिषद् में सपष्ट उल्लेख है कि लब्धियों से निरोगता, जन्म-मरण का न होना, शरीर का हल्कापन, आरोग्य, विषय-निवृत्ति, शरीरक्रान्ति, स्वरमाधुर्य मलमूत्र की अल्पता आदि प्राप्त होती है। 56 इसी प्रकार 392 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org