________________ में तीव्र जिज्ञासा वाला होता है। उपाध्याय यशोविजय ने आठ दृष्टियों की सज्झाय में बलादृष्टि को परिभाषित करते हुए कहा है त्रीजी दृष्टि बला कही जी, काष्ठ अग्निसम बोध / क्षेप नहीं आसन सधेजी, श्रवण समीहा शोध।। -रे जिनजी, धन धन तुज उपदेश। 1105 यहाँ तीसरी दृष्टि का बोध काष्ठ के अग्नि समान होता है, उसके क्षेप दोष नहीं होता है। विश्रामपूर्ण आसन को प्राप्त करता है। तत्त्व सुनने की इच्छारूप गुण की प्राप्ति होती है। इस दृष्टि में योगी सुखासन मुक्त होकर काष्ठाग्नि जैसा तेज एवं स्पष्ट दर्शन प्राप्त करता है। उसे तत्त्वज्ञान के प्रति अभिरुचि उत्पन्न होती है तथा योग-साधना में किसी प्रकार का विक्षेप नहीं होता। - पतंजलि का तृतीय योगांग आसन है।106 हरिभद्रानुसार इस दृष्टि में स्वभाव से असत् तृष्णा समाप्त हो जाती है, जिससे सर्वत्र सुखपूर्वक आसन होता है।106 लेकिन उपाध्याय यशोविजय कहते हैं किआध्यात्मिक स्थिति के बिना शारीरिक आसन स्थितियों का कोई महत्त्व नहीं है। तन-मन स्थिरता ही सच्चा सुखासन है। वस्तुतः पतंजलि के शास्त्रों में बताये गए आसनों में आध्यात्मिक पात्रता दिखाई नहीं देती है। वह तो केवल शारीरिक पात्रता की अहमियत रखती है। इस विषम परिस्थिति से बचने के लिए कहा गया है कि अपने स्वभाव में स्थिर होने से शारीरिक पात्रता में भी स्थिरता आ जाती है।108 कहा है आप स्वभावमा रे अवधु, सदा मगन में रहना। जगत जीव है कर्माधीना, अचरीज कच्छह न लीना।। तुम नहीं केरा कोई नहीं तेरा, क्यों करे मेरा मेरा। तेरा है सो तेरी पासे, अवर सब अनेरा।।आप।।100 इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हुए उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि तरुण सुखी स्त्री परिवर्या रे, चतुर सुणे सुरगीत। तेहथी रागे अतिथणे रे, धर्म सुज्यारी रीत रे।।110 तरुण सुखी स्त्री परिवर्या जी, जिम चाहे सुरगीत। तेम सांभलवा तत्व ने जी, एह दृष्टि सुविनित रे।।जिनजी।।" इस दृष्टि से चारित्रपालन के अभ्यास को करते-करते साधक की वृत्तियाँ एकाग्र बनती हैं और तत्त्व-चिन्तन में स्थिरता का अनुभव होता है। इस प्रकार इस दृष्टि में साधक की वृत्तियाँ शांत हो जाती हैं, मन की स्थिरता प्राप्त होती है, समता भाव प्रगट होता है और आत्मा की विशुद्धि उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। एक और विशेषता उसमें आ जाती है कि वह अध्यात्म साधना में उपकारक या सहायक साधनों में इच्छा का प्रतिबंध नहीं करता अथवा वह साधना को ही सब कुछ नहीं मान लेता। आत्म-सिद्धि रूप साध्य को प्राप्त करने में उसका प्रयत्न होता है। 387 27 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org