________________ इस दृष्टि में साधक मोक्ष की कारणभूत सामग्रियां अर्थात् योगबीज की पूर्णता तैयारी करके सम्यक्बोध प्राप्त करने में समर्थ होता है। उपाध्याय यशोविजय ने आठ दृष्टि की संज्झाय में तारा दृष्टि को उपमित करते हुए कहा है दर्शन तारा दृष्टिमां मन मोहन मेरे, गोमय अग्नि समान। मन....। शौथ संतोष ने तप भलु मन मोहन मेरे, सज्झाय ईश्वर ध्यान।। मन..... / / 398 इस दृष्टि में बोधज्ञान कण्डे के अग्निकर्णा से की जाती है। उसमें शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरध्यान आदि पाँच नियम रूपी योगांग प्रवर्तमान हैं। यह प्रकाश अल्पवीर्य वाला और अचिरकाल स्थायी होता है। पटुस्मृति के संस्कार नहीं होने से वंदनादि क्रियाएँ द्रव्य ही होती हैं। भावक्रिया हो, वैसे संस्कार दृढ़ नहीं बनते हैं, हृदय में वैराग्य होता है पर गांठ अनुबंध वाला नहीं होने से निमित्त मिलते ही निस्तेज बन जाता है। बाह्य दृष्टि से धर्मानुष्ठान विधि सहित करता है, लेकिन विषय-कषाय की वासना का पूर ज्यादा होता है, उससे क्रियाकाल में वह उछलने लगता है। वासनाओं के प्रति उपादेय बुद्धि अभी दूर नहीं होती है। इस दृष्टि में साधक को शौचादि नियमों का पालन करते हुए आत्महित का कार्य करने में उद्वेग नहीं होता और उसकी तात्विक जिज्ञासा जागृत होती है।399 इस अवस्था में मिथ्यात्व के कारण साधक अथवा योगी को कण्डे के अग्निकणों की तरह क्षणिक सत्य का बोध होता है। पातंजल योगसूत्र में भी 1. शौच, 2. संतोष, 3. तप, 4. स्वाध्यपाय और 5. ईश्वरप्रणिधान-ये पांच नियम बताये हैं तथा इच्छादि रूप से चार-चार भेद किये हैं। इन्हीं नियमों के पांच प्रकारों का उल्लेख उपाध्याय यशोविजय ने भी आठ दृष्टि की सज्झाय में किया है।400 यह नियमों का अंतर स्पष्ट करते हुए डॉ. भगवानदास कहते हैं कि यमों का जीवनभर पालन होता है तो नियमों का विशिष्ट कालखण्ड में ही पालन किया जाता है। इस दृष्टि में साधक योगी एवं योगियों की कथाओं के प्रति अतिशय प्रेम रखता है। उनका हार्दिक बहुमानभाव, वैयावच्च, सेवाभक्ति करने के भाव जागते हैं। अनुचित आचरण का त्याग एवं उचित आचरण का सेवन, गुणवान महात्माओं के प्रति अधिक विनय, अपने गुणों की हीनता के दर्शन, संसार के दुःखमय त्रासमय लगना, उनसे छूटने की तीव्र इच्छा, शास्त्रों में ज्यादा है, मति अल्प है, ऐसा ज्ञान होना शिष्टों के वचनों को प्रमाणभूत मानकर प्रवृत्ति करना-ये सब तारादर्शन में स्थित जीव सदा मानता है।102 तात्पर्य यह है कि तारादृष्टि में साधक को अचानक अध्यात्म उद्बोध की कुछ विशद् झलक दिखाई तो देती है, परन्तु साधक का कोई पूर्व संस्कार नहीं छूट पाता है। इसलिए साधक के कार्यकलापों में द्रव्यात्मकता से अधिक विकास नहीं हो पाता है। इस प्रकार इस दृष्टि में साधक योगलाभ प्राप्त करने की उत्कण्ठा, आकांक्षा रखते हुए भी अज्ञान के कारण अनुचित कार्यों में लगा रहता है। मतलब कि सत्यार्थ में लगे रहने पर भी साधक में अशुभ प्रवृत्तियाँ रहती हैं। 3. बलादृष्टि इस अवस्था में ज्ञानबोध और भी दृढ़ होता है। जिसकी उपमा काष्ठ के अग्निकण के प्रकाश से की है। यह दीर्घकाल तक स्थायी और तीव्र शक्ति वाला होता है। इसमें साधक तात्विक चर्चाओं 386 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org