________________ योगदृष्टि के प्रकार को बताते हुए उपाध्याय यशोविजय ने योगावतार द्वात्रिंशिका में बताया है तृणगोमयकाष्ठा ग्निकण दीपप्रभोपमा। रनतारार्कचंद्राभाः क्रमेणेक्ष्यादि सन्निमा।।91 इसी प्रकार आठ प्रकार की योग दृष्टियां उद्योत की दृष्टि से उत्तरोत्तर उत्तम होती हैं। यहाँ उद्योत की आभा के उत्तरोत्तर उत्कर्ष के सन्दर्भ में चन्द्र का स्थान अन्तिम इसलिए माना गया है कि उसका प्रकाश योग्यता, हृदयता, शीतलता आदि की दृष्टि से सर्वोत्तम है। आठ दृष्टियों का क्रमशः वर्णन उपाध्याय यशोविजय ने आठ दृष्टि की सज्झाय में किया है, जैसे1. मित्रा, 2. तारा, 3. बला, 4. दीप्रा, 4. स्थिरा, 6. कोता, 7. प्रभा तथा 8. परा। इन आठ दृष्टियों का जो सत्पुरुष अभ्यास करते हैं, यम-नियमादि योग के आठ अंग क्रमशः सिद्ध / हो जाते हैं। खेद, उद्वेग आदि दोषों का परिहार हो जाता है तथा अद्वेष, जिज्ञासा आदि गुण हो जाते हैं। उपाध्याय यशोविजय के अनुसार इन आठ योग-दृष्टियों की आराधना एक ऐसी यात्रा है, जो संसार से मोक्ष की ओर जाती है। यात्रा में अनेक विघ्न होते हैं। पथिक थक जाता है। कभी-कभी निरुत्साह और बलहीन हो जाता है, किन्तु फिर वह आत्मबल का सहारा लेता हुआ आगे बढ़ता है। पहले ही चार दृष्टियों में ऐसी ही स्थिति रहती है। बाधाएँ आती हैं, साधक फिर उत्साहित होता है। आत्मबल का सहारा लेता हुआ इन चार दृष्टियों को लांघ जाता है और पांचवीं स्थिर दृष्टि को प्राप्त कर लेता है। फिर वह गिरता नहीं है। इस दृष्टि का स्थिर नाम इसी सत्य का सूचक है। उसकी गति सिद्ध मार्ग की ओर बढ़ती रहती है। ___यात्रा करने वाला दिन में चलता है, रात में विश्राम करता है। यद्यपि वह विश्राम यात्रा में रुकावट तो है, किन्तु इससे यात्रा-क्रम टूटता नहीं है। इसी प्रकार साधक की यात्रा तो चलती है, किन्तु पूर्व संचित कर्मों में जिस कर्म का भोग शेष रह जाता है, उसे पूर्ण करने हेतु उसका देवयोनि आदि में जन्म होता है। संचित कर्मों के विषयात्मक भोग को पूर्ण कर फिर वह मानव रूप में जन्म लेता है। साधना पथ का अवलम्बन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर अपना लक्ष्य पूरा करता है। एक यात्री जब यात्रा पर जाता है तो साथ में पाथेय लेता है, खाद्य सामग्री लेता है, जो यात्रा में उसके उपयोग में आती है। इसी प्रकार आठ दृष्टियों के माध्यम से साधना की यात्रा पर यह सब पाथेय के तुल्य है, जो उसे आगे बढ़ने में बल देता है, परिश्रोत नहीं होने देता। अब आगे आठ दृष्टियों का विवेचन किया जा रहा है। 1. मित्रा दृष्टि समस्त जगत् के प्रति मैत्री भाव के कारण वह मित्रादृष्टि कही गई है। इसके प्राप्त हो जाने पर दर्शन सत् श्रद्धामूलक बोध होता तो है, किन्तु वह भेद होता है। साधक इस दृष्टि में योग के प्रथम . भेद यम को, जो इच्छा आदि रूप में विभाजित है, प्राप्त कर लेता है। देवकार्य, गुरुकार्य तथा धर्मकार्य में उसे खेद तथा परिश्रोति का अनुभव नहीं होता। वह अखिन्न होता हुआ यह सब करता है। उसका खेद नामक आशय दोष मिट जाता है जो देव कार्य आदि नहीं करते, उसके मन में उसके प्रति द्वेषभाव नहीं होता। 384 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org