Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ उपरोक्त विधिपूर्वक तत्त्वचिंतन करते-करते जो तत्त्वज्ञान प्राप्त होता है, वह प्रथम के दो ज्ञान-श्रुतज्ञान चिंतामयज्ञान का निरास करके भावनामय ज्ञान होता है। इस तत्त्वज्ञान से बड़ी से बड़ी उक्त तीन प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं। इस प्रकार उपाध्याय यशोविजय ने योग की विधि भी अत्यावश्यक समझकर उसका उल्लेख स्पष्ट रूप से किया है। पातंजल योग में इसके समकक्ष योग विधि या तत्त्वचिंतन का वर्णन नहीं मिलता। योग की दृष्टियाँ जीवन में समग्र कार्यकलापों का मूल आधार दृष्टि ही होती है। सत्त्व, रज और तम में से जिस ओर हमारी दृष्टि मुड़ जाती है, हमारा जीवन प्रवाह उसी ओर स्वतः बढ़ जाता है। जीवन में दृष्टि या दर्शन का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। ये दोनों शब्द संस्कृत में 'दृश' धातु से बने हैं। दृश धातु प्रेक्षण के अर्थ में है। प्रेक्षण शब्द के आरम्भ में प्र उपसर्ग लगा हुआ है। प्रकर्षण ईक्षणम्-प्रेक्षणम्-प्रकृष्ट या उत्कृष्ट रूप में देखना प्रेक्षण है। देखते तो सभी हैं किन्तु देखने वालों में योग्यता की दृष्टि से भेद होता है। कुछ लोग बहुत ही स्थूल दृष्टि से देखते हैं। उनका देखना गहरा नहीं होता। ये पदार्थ के केवल बाहरी रूप को देखते हैं, किन्तु जिनकी दृष्टि तीक्ष्ण या पैनी होती है, वे वस्तु के स्वरूप का सूक्ष्म दर्शन करते हैं। प्रेक्षण वैसे ही सूक्ष्म दृष्टि का सूचक है। मनुष्य की दृष्टि जैसी होगी, उसी के अनुरूप भाव होंगे। जैसे मार्ग में पड़ी हुई स्वर्ण और राशि पर एक द्रव्य लोभी की दृष्टि पड़ती है तो वह उसे अपने अधिकार में ले लेने को तत्पर होता है। एक त्यागी साधक की दृष्टि उस पर विशेष रूप से जाती ही नहीं। उस ओर वह उपेक्षित रहता है। एक संतोषी सद्-गृहस्थ उसे देखता है, तब उसके मन में आता है, बेचारे किसी मनुष्य का स्वर्ण गिर पड़ा, यदि उसे पहुंचाया जा सके तो कितना अच्छा हो। एक ही पदार्थ पर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की दृष्टियां भिन्न-भिन्न होती हैं। विकारयुक्त दृष्टि अशुभ या पाप-पुण्य कार्यों में जाती हैं। निर्विकार दृष्टि शुभात्मक या पुण्यात्मक कार्यों में जाती है। वही जब और निर्मलता पा लेती है, तब वह शुभ को भी पार कर जाती है और शुद्धत्व की भूमिका पा लेती है। जैनशासन की परम्परा में मोक्ष तक की श्रेणियां बनाई हैं। इसमें मानव अत्यन्त निम्न, निकृष्ट श्रेणी से अत्यन्त उज्ज्वल स्वरूप तक अपने व्यक्तित्व को विकसित करता है। इन्हीं चौदह विकासोन्मुख श्रेणियों को गुणस्थानक कहा है। योगदृष्टि समुच्चय में आचार्य हरिभद्रसूरि ने आध्यात्मिक विकास श्रेणी की नूतन पद्धति ही प्रस्तुत की है। उन्होंने आत्मा के क्रमिक विकास को ध्यान में रखकर आध्यात्मिक उत्क्रांति को आठ अवस्थाओं में विभाजित किया है, जिन्हें आठ दृष्टियां कहकर संबोधित किया है। ये आठ दृष्टियां उपाध्याय यशोविजय ने आठ दृष्टि की सज्झायं में वर्णन किया है। आत्मा के क्रमिक विकास-चौदह गुणस्थानों को ध्यान में रखकर आचार्य हरिभद्र ने योग की आठ दृष्टियों का वर्णन किया है। उनके अनुसार दृष्टि उसको कहते हैं, जिससे समीचीन श्रद्धा के साथ बोध हो और इससे असत् प्रवृत्तियों का क्षय करके सत् प्रवृत्तियां प्राप्त हो। दृष्टि दो प्रकार की है-ओघदृष्टि और योगदृष्टि। सांसारिक भाव, सांसारिक सुख, सांसारिक पदार्थ तथा क्रियाकलाप में जो रची-बसी रहती है, वह ओघदृष्टि है। इसी प्रकार आत्मत्व, जीवन के सत्यस्वरूप तथा उपादेय विषयों को देखने की दृष्टि योगदृष्टि कही जाती है।390 383 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org