Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ जिस प्रकार इष्ट नगर में पहुंचने के लिए उसके मार्ग का यथार्थ ज्ञान, उस मार्ग के यथार्थ ज्ञान के प्रति विश्वास, उसी मार्ग पर गमन-इन तीनों का समन्वय होना आवश्यक है, तब वह इष्ट नगर की प्राप्ति कर सकता है। उसी प्रकार मोक्षमार्ग की प्राप्ति में भी सम्यग् ज्ञानादि हेतु है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणी मोक्षमार्गः।42 सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यग चारित्र ही मोक्षमार्ग है। इन रत्नत्रयों को अपनाकर अनेक आत्मा मोक्ष के अधिकारी बनते हैं, बन रहे हैं। इसलिए उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि मुक्त जीव एक, दो, पांच या संख्यात-असंख्यात नहीं हैं परन्तु अनन्त हैं और इसके द्वारा जो ईश्वर सर्वज्ञ परमात्मा एक ही है, ऐसा मानते हैं, उनका प्रतिक्षेप हो जाता है। जो मुक्तात्मा को एक ही, अद्वैत माने तो अन्य संसारी जीवों के द्वारा मुक्ति प्राप्ति के लिए किया जाता हुआ योग का सेवन निरर्थक होने का प्रसंग आ जायेगा। कारण कि ईश्वर एक होने से दूसरे जीव को मुक्ति असंभावित होगी। दूसरे जीव को मोक्ष गमन का अवसर ही प्राप्त नहीं होगा, जिससे योग सेवन भी नहीं करेंगे और धीरे-धीरे योग मार्ग ही विलीन हो जायेगा, जो कि यथार्थ नहीं है। साथ ही उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि निश्चयनय का यह लक्षण तभी सार्थक सिद्ध होता है जबकि ये तीनों रत्नत्रयी आत्मा से जुड़ें। जब ये तीनों तत्त्व आत्मा से जुड़ते हैं, तभी कर्मों का क्षय होता है। कर्मों का क्षय होते ही आत्मा मोक्षमार्ग का अधिकारी बन जाती है। व्यवहारनय से योग का लक्षण ___आगमों में निश्चय नय को जितना महत्त्व दिया है, उतना ही महत्त्व व्यवहार-नय को भी दिया है। उपाध्याय यशोविजय ने योगविंशिका में निश्चय एवं व्यवहार की बात बताते हुए कहा है कि नैश्चयिक दृष्टि से स्थान, वर्ण, अर्थ, आलम्बन तथा अनालम्बन योग-इस प्रकार पांच प्रकार का योग उन्हें सिद्ध होता है, जो चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से, आंशिक रूप से या सम्पूर्ण रूप से चारित्र सम्पन्न होते हैं। जो वैसे नहीं होते उनमें यह केवल बीज मात्र रहता है, सिद्ध नहीं होता। व्यावहारिक दृष्टि से विद्वानों ने बीज मात्र को योग कहा है। आचार्य हरिभद्र सूरि ने गुरुविनयादि को भी योग के अन्तर्गत समाविष्ट किया है, क्योंकि उन्होंने इस सत्य को उजागर किया है कि यदि निश्चय नय से योग को प्राप्त करना हो, लोकोतर कोटि के योग को पाना हो तो लौकिक व्यवहार को भी अपनाना होगा। अतः उन्होंने योगशतक में व्यवहारनय का उल्लेख इस प्रकार किया है व्यवहारओ उ एसो, विन्नेओ एयकारणाणं चि। जो संबंधो सो विय, कारण कज्जोवयाराओ।। गुरु विणओ सूस्सूसाइया य विहिणा उ धम्मसत्येसु। तह चेवाणुठाणं विहि-पहिसेहेसु जहसतिं / / इस रत्नत्रयी के कारणों के साथ आत्मा का जो सम्बन्ध है वह भी कारण से कार्य का उपचार कहने से व्यवहारनय मत में योग कहलाता है। 372 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org