Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ सम्यग्दृष्टि जीव को जिनोक्त तत्त्वों पर श्रद्धा होती है। दुःखी जीवों को द्रव्य से और भाव से दुःख होते हैं, उनको दूर करने की इच्छा होती है। संसार की निर्गुणता जानकर विरक्त बनता है। मोक्ष की अभिलाषा और क्रोध तथा विषयतृष्णा का शमन करता है।360 इन पांच गुणों का आविर्भाव होने से आत्मा का चित्त मोक्षमार्ग के चिन्तन में रहता है। फिर चाहे उसका शरीर संसार में रहे, लेकिन उनकी समस्त प्रवृत्तियाँ भाव से योगरूप होती है।561 3. देशविरति योगमार्ग का तीसरा अधिकारी चरित्रवंत आत्मा है। यह आत्मा-1. मार्गानुसारी, 2. श्रद्धावान्, 3. धर्मोपदेश के योग्य, 4. क्रियातत्पर, 5. गुणानुरागी, 6. शक्य में प्रयत्नशील होता है।362 ये लक्षण देशविरति और सर्वविरति के हैं। यद्यपि सम्यग् दर्शन प्राप्त करने के पश्चात् उसे 9 पल्योपम काल बीत जाने के बाद चारित्र-मोहनीयादि कर्म का क्षयोपशम होता है तब देशविरति धर्म जीव प्राप्त करता है और संख्यात सागरोपम जाने के बाद सर्वविरति चारित्र को प्राप्त करता है। अन्य दर्शनकारों ने भी कहा है कि आत्मा ने जो-जो आश्रय कार्य किये हों, परन्तु जिस कार्य के आगे-पीछे समाधिरूप फल की प्राप्ति होती हो तो ये सावकार्य भी समाधि कहलाते हैं। अन्य दर्शन जिसे समाधि कहते हैं, उसे ही जैनदर्शन भावयोग कहते हैं। 4. सर्वविरतिवान योग का चतुर्थ अधिकारी सर्वविरतिवान आत्मा है। चारित्रवान आत्मा के जिनेश्वर की आज्ञा पालन- . की परिणति भिन्न-भिन्न होने से सामायिक की शुद्धि भी भिन्न-भिन्न होती है। अतः चारित्रवान जीव अनेक प्रकार के हैं, लेकिन ये जीव अन्त में यावत् क्षायिक वीतरागी होते हैं। इस प्रकार सामान्य रूप से चारों प्रकार के आत्माओं को मोक्ष के अधिकारी बताये हैं। लेकिन योगविंशिका टीका में उपाध्याय यशोविजय ने स्थानादि पांच योगों के अधिकारी देशविरति और सर्वविरति वाले को ही स्वीकार करते हैं तथा अपुनर्बन्धकादि में तो योग का बीजमात्र ही मानते हैं। इस प्रकार इन सब अधिकारियों के विषय में जब चिन्तन करते हैं तब यह प्रतीत होता है कि उपाध्याय यशोविजय तेमज हरिभद्रसूरि ने योग के अधिकारियों की अधिकारिता उनके अनुरूप ही बताई है, साथ ही जो योग के अनधिकारी हैं, उनका भी स्पष्ट कथन किया है, साथ में सकृदबंधक आदि अनधिकारियों के लिए यह भी कहा कि यद्यपि सकृदबंधक, द्विवर्धक और चरमावर्ती जीव अपुनर्बन्ध कायस्थ की पूर्वभूमिका उत्तरोत्तर नीचे-नीचे होने के कारण परम्परा से वे योगदशा के अभिमुख हैं और क्रमशः वृद्धि होने पर योगदशा प्राप्त करने के अधिकारी हैं। उसी से अन्य शास्त्रों में उनको भी अधिकारी कहे हैं, तथापि यह योग्यता अल्प होने से योग-प्रकरण में इन अपुनर्बंधकादि चतुर्विध जीवों से अन्य सकृदबंधकादि त्रिविध जीवों को योग के अधिकारी नहीं कहे हैं। जिस प्रकार अल्पधर्म से मनुष्य धनवान नहीं कहलाता, अल्परूप से रूपवान् नहीं कहलाता, अल्पज्ञान से ज्ञानवान् नहीं कहलाता, उसी प्रकार सकृदबंधकादि जीवों में योग की अल्पता होने से उनको अधिकारी नहीं कहे।366 योग के भेद-प्रभेद आत्मा प्रारम्भ में अनेक क्लेश एवं कर्म आवरण से युक्त होती है। नदीघोल के न्याय से वह धीरे-धीरे अपने विकासक्रम में अग्रसर बनती है। उसमें प्रत्येक आत्मा के परिणामों में भिन्नता होती है, 376 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org