Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ 2. भावना योग भी स्थान, उर्ण और अर्थयोग में समाविष्ट होता है। 3. प्रशस्त एक अर्थ विषयक चित्त की स्थिरता वह आध्यान कहा जाता है। 4. अविधा के द्वारा इष्ट और अनिष्ट वस्तुओं में जो कल्पना जीवों को होती है, उस कल्पना को सम्यग्ज्ञान के बल से दूर करके समभाव की जो वृत्ति, वह समतायोग है। 5. अन्य द्रव्य के संयोग से उत्पन्न मानसिक और कायिक वृत्तियों का नाश, वह वृत्तिसंक्षय है। इन दोनों का निरालम्बन योग में समावेश किया है। 375 - योगबिन्दु76 में भी इन पांच योगों का वर्णन आचार्य हरिभद्रसूरि ने किया है। योगशास्त्र में विविध प्रकार से योग के दो-दो भेद बताये हैं योग सानुबन्ध निरनुबन्ध आनव रहित आश्रवयुक्त आश्रव रहित षोडशक और ज्ञानसार में योग के दो भेद बताये हैं, वे इस प्रकार हैं सालम्बनो निरालम्बनश्च, योग पदो द्विधा रोयः। जिनरूपध्यानं खल्वाद्यस्ततत्वगस्तत्वपरः।। परमयोग सालम्बन और निरालम्बन दो प्रकार का है। . आचार्य हरिभद्र सूरि ने योगविंशिका में भी ये दो भेद किये हैं आलम्बण पि एयं रुव्वमरुव्वी इत्य पदमु ति। तगुण पदिणइरुवो सुहुमो अणालंबणो नाम।।78 इस योग संबंधी प्रकरण में समवसरणस्थ जिनप्रतिमास्वरूप रूपी और सिद्ध परमात्मा स्वरूप अरूपी-दो प्रकार का आलम्बन है। वहाँ सिद्ध परमात्मा के गुण जो केवलज्ञानादि हैं, उसके साथ एकाकारता रूप जो परिणति विशेष, वह सूक्ष्म अनालम्बन योग है। योगबिन्दु में संप्रज्ञातयोग और असंप्रज्ञात योग दो प्रकार के योग बताये हैं। उपाध्याय यशोविजय ने योगविंशिका की टीका380 में इसी बात की पुष्टि की है कि जैनदर्शन की जो क्षपकश्रेणी कहलाती है, उसे ही अन्य दर्शनकार संप्रज्ञात समाधि कहते हैं तथा क्षपकश्रेणी के पश्चात जो केवलज्ञान प्राप्त होता है, उसे परदर्शनकार असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं। इन दोनों में नामभेद है, लेकिन अर्थ बिल्कुल अघटित नहीं है। योगदृष्टि समुच्चय में तीन प्रकार के योग बताये हैं381 योग इच्छायोग शास्त्रयोग सामर्थ्य योग धर्मसंन्यास योगसंन्यास 379 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org