Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ मोहनीय कर्म और ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के तारतम्य से स्थानादि योगों के असंख्यभेद होते हैं। फिर भी सभी को ध्यान में आ सके, ऐसी स्थूल योगों से परिणामों की तरतमता के आधार से 14 गुणस्थान के समान योगशास्त्र में बताई हुई रीति से 1. इच्छा, 2. प्रवृत्ति, 3. स्थिरता, 4. सिद्धिये चार भेद किये हैं। इच्छा योग-स्थानादि योग से युक्त ऐसे योगी-महात्माओं की कथा करने और सुनने में अतिशय प्रीति वाली और दिन-प्रतिदिन अधिक उल्लास से विशेष परिणाम को बढ़ाने वाली ऐसी भावना इच्छायोग कहलाती है। प्रवृत्ति योग-सर्वत्र उपशम भावपूर्वक स्थानादि में योग का सेवन, वह प्रवृत्ति योग कहलाता है। स्थिरता-स्थानादि में योग बाधक विघ्न उसकी चिंतारहित जो पालन करे वह स्थिरता योग कहलाता है। सिद्धि-उस स्थानादि योगों का स्वयं को जो फल प्राप्त होता है, उसी प्रकार का फल दूसरे में भी प्रापक बन सके, ऐसा सिद्ध बना हुआ अनुष्ठान सिद्धियोग कहलाता है।370 उपरोक्त भावों को प्रस्तुत करते हुए उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मसार के प्रबंध तीसरे द्वेष श्लोक में इस प्रकार बताया है इच्छा तदवत्कथा प्रीतियुक्ताऽविपरिणामिनी। प्रवृतिः पालनं सम्यक् सर्वत्रोपशमान्वितम्।। सत्क्षयोपशमोत्कर्षा दतिचारादिचिन्तया। रहितं तु स्थिरं सिद्धि पदेषामर्थसाधकम्।।। ज्ञानसार72 में भी उपाध्याय यशोविजय ने ऐसा ही उल्लेख किया है। इस प्रकार स्थानादि पांचों योग इच्छादि चार-चार प्रकार के होते हैं अर्थात् प्रत्येक के चार-चार भेद होने से 20 भेद हुए। योग के 80 भेदों में कुछ मतभेद है, जैसे कि योगविशिका के मूल 8वीं गाथा की टीका में तदेव हेतुभंदेनानुभावभेदेन चेच्छादिभेदविवेचनं कृतं / जो पंक्ति है, यह देखते हुए ऐसा ज्ञात होता है कि श्रद्धा-प्रीति-धृति-धारणा स्वरूप पूर्वतरवर्ती कारणभेद और अनुकंपा निर्वेद संवेग शमत्व स्वरूप पश्चादवर्ती कारणभेद के साथ स्थानादि पांच योगों का गुणाकार कर अशीति भेद 80 होते हैं, ऐसा अर्थ होता है। कुछ गीतार्थ महामुनि इसी ग्रंथ की 18वीं गाथा में आने वाले प्रीति, भक्ति, वचन और असंग-इस प्रकार चार अनुष्ठान इच्छादि योग वाले होने से स्थानादि पांच योगों को इच्छादि चार से और उनको प्रीति आदि से गुणाकार करने पर 80 भेद होते हैं। योग वाला अनुष्ठान का विषय होने से यह अर्थ अधिक युक्तिसंगत लगता है। बीच में प्रासंगिक विधि-अविधि की चर्चा होने से प्रीति आदि अनुष्ठान का वर्णन दूरवर्ती बना है।74 अध्यात्मादि योग भी चारित्रवान् आत्मा को ही प्राप्त होते हैं। अतः स्थानादि योगों का आध्यात्मिक योगों के साथ संबंध है तथा अध्यात्म योग का स्थानादि योग में अन्तर्भाव होता है। वह इस प्रकार है 1. देवसेवा, पूजा, जप, तत्त्वचिंतन स्वरूप भेद वाला अध्यात्म योग का समावेश अनुक्रम से स्थान, उर्ण और अर्थयोग में होता है। 378 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org