Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ * और संन्यास-ये चार आश्रम हैं। जैनत्व जाति से, अनुवंश से या किसी प्रकृति विशेष से नहीं माना गया है परन्तु वह तो आध्यात्मिक भूमिका पर निर्भर है। जब किसी व्यक्ति की दृष्टि मोक्षाभिमुख होती है तब वह जैनत्व की प्रथम भूमिका है। इसका पारिभाषिक नाम अपुनर्बन्धक है। मोक्ष के प्रति सहज श्रद्धा, रुचि का प्रगट होना एवं यथाशक्ति तत्त्वों की जानकारी होना-यह सम्यग्दृष्टि नाम की दूसरी भूमिका है। जब वह श्रद्धा, आस्था, रुचि एवं समझ आंशिक रूप से जीवन में उतरती है तब वह देशविरति नाम की तीसरी भूमिका प्रगट होती है। इसके आगे सम्पूर्ण रूप से चारित्र एवं त्याग की कला उत्तरोत्तर विकसित होने लगती है तब सर्वविरति नाम की चौथी भूमिका अर्थात् अन्तिम भूमिका आती है। इन भूमिका वाले आत्मा ही उत्तरोत्तर योग को प्राप्त करते हैं। आत्मविकास की ओर अग्रसर होने के क्रम में चरमावर्ती जीव जिन-जिन स्थितियों से गुजरता है, उन स्थितियों की चार कोटियां हैं-1. अपुनर्बंधक, 2. सम्यग्दृष्टि, 3. देशविरति एवं 4. सर्वविरति।355 1. प्रथम अधिकारी अपुनर्बन्धक ___ उपाध्याय यशोविजय सर्वप्रथम जिसने सच्ची भूमिका का स्पर्श नहीं किया और केवल उस ओर अभिमुख बने हुए आत्मा को योग का अधिकारी बताते हुए कहते हैं कि वह जीव जो अनादिकाल से तीव्र राग-द्वेष-मोह आदि के परिणाम होने से कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बांधता था। लेकिन अब मोह का अंश अल्प क्षीण हो जाने के कारण तथा कर्म प्रकृतियों का आधिक्य कम होने के कारण, चरमावर्तकाल में भी कर्म की उत्कृष्ट स्थिति नहीं बांधने के कारण अपुनर्बन्धक कहलाता है। योगशतक में अपुनर्बन्धक के लक्षण बताते हुए कहा है कि1. यह जीव तीव्र भाव से हिंसादि पापों को नहीं करता है। 2. संसार की समस्त वस्तुएं स्वजन-परिजन-धन-माल-मिल्कत आदि को न तो बहुमान देता है और न उन वस्तुओं की इच्छा करता है। 3. सभी स्थानों में उचित आचरण करता है, धार्मिक कार्यों में अपनी शक्ति को छुपाता नहीं है और व्यावहारिक में धर्म या धर्मों की निन्दा हो, वैसा आचरण नहीं करता है।57. अपुनर्बन्धक अवस्था से निम्न कक्षा वाले सकृदबन्ध, द्विर्बन्धक और चरमावर्ती जीव भी योग के . अधिकारी नहीं हैं, क्योंकि सकृद बंधादि त्रिविध जीवों में योग्यता अत्यन्त अल्प होने से अधिकारी नहीं हैं। योगदृष्टि समुच्चय में कुलयोग और प्रवृतचक्रयोगी महात्माओं को ही इस योग के अधिकारी कहे हैं, गोत्रयोगी और निष्पन्न योगी को नहीं।358 उपाध्याय यशोविजय ने तो यहाँ तक कह दिया है कि योग के ग्रन्थ पढ़ने के भी योग्य जीव ही अधिकारी होते हैं। अयोग्य आत्माओं को तो पढ़ने की भी आज्ञा नहीं देनी चाहिए, क्योंकि उल्टा अनर्थ हो जाता है। उन आत्माओं का शास्त्र भी उपकार नहीं कर सकते हैं। 2. सम्यग्दृष्टि योग का दूसरा अधिकारी सम्यग्दृष्टि आत्मा है। यह आत्मा यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि करते हुए ग्रंथिभेद करके औपशमिक आदि सम्यक्त्व प्रगट करता है। 375 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org