Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ से व्यवहारयोग से प्रकृष्ट स्वरूप ऐसे सम्यग्ज्ञानादि गुणों की निश्चय प्राप्ति होती है, क्योंकि सेवा आदि व्यवहारयोग का पुनः-पुनः आसेवन करने से भविष्य में यह व्यवहारयोग निश्चययोग की प्राप्ति को अबन्ध्य कारण होने से निश्चय रूप से सिद्धि की प्राप्ति होती है। इस प्रकार व्यवहार योग के संस्कार एक बार जो बीज रूप में आत्मा में स्थिर बन जाते हैं तो उत्तरोत्तर भवों में अनुबन्धरूप बनने के कारण भवोभव में चारों तरफ से अत्यन्त गाढ़ बनने से मार्गानुसारी और परमात्मा की आज्ञा का अनुसरण करने से विशुद्ध बना हुआ ऐसा यह धर्मानुष्ठान गाढ़ अनुबन्ध वाला बनता है। अन्त में निश्चित निश्चययोग की प्राप्ति होती है। इसी बात का सन्दर्भ उपाध्याय यशोविजय ने आठ दृष्टि की सज्झाय" में किया है। योग के अधिकारी योगबिन्दु के अनुसार योगाधिकारी साधक की दो कोटियाँ हैं-अचरमावर्ती तथा चरमावर्ती। अचरमावर्ती जीव पर मोहादि भावों का दबाव रहता है, जिसके फलस्वरूप उसकी प्रवृत्ति पर घोर सांसारिक विवेकरहित एवं अध्यात्म-भावनादि क्रियाकर्मों से विमुख होती है।18 सांसारिक पदार्थों में लोभ-मोह के कारण ही जीव को भवाभिनन्दी कहा गया है। यद्यपि अचरमावर्ती अथवा भवाभिनन्दी जीव धार्मिक व्रत-नियमों का अनुष्ठान भी करता है, लेकिन यह सब श्रद्धाविहीन होता है। सधर्म एवं लौकिक कार्य भी वह कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि की कामना से करता है। इस दृष्टि से उसे लोकपकितकृतादर भी कहा गया है। चरमावर्ती में चरम और आवर्त दो शब्द हैं। चरम का अर्थ है अन्तिम और आवर्त का अर्थ है पुद्गलावर्त। अतः इस आवर्त में स्थित जीव चरमावर्ती कहलाता है। इसमें जीव की धार्मिक, यौगिक अथवा आध्यात्मिक जागृति होती है अर्थात् योगदृष्टि का प्रादुर्भाव यहीं से होता है।350 . उपाध्याय यशोविजय ने द्वात्रिंशिका में बताया है कि-चरमावर्ती जीव स्वभाव से मृदु, शुद्ध तथा निर्मल होते हैं। चरमावर्त में आया हुआ प्राणी मुक्ति के निकट होता है। उसने बहुत से पुद्गल परावर्तों का उल्लंघन कर दिया है। उसका एक बिन्दु स्वरूप मात्र एक आवर्त शेष है, जैसे कि समुद्र में एक बिन्दु जल अवशिष्ट रहे।52 उपाध्याय यशोविजय ने कहा है कि चरमावर्तकाल में जीव सम्पूर्ण आन्तरिक भावों से परिशुद्ध होकर जिन क्रियाओं का सम्पादन करता है, उन क्रियाओं के साधनों को योग कहा गया है।353 लेकिन प्रश्न होता है कि इस योगमार्ग के अधिकारी कौन? क्योंकि योग्य जीव ही योग का अधि किरी बन सकता है, योग्यता के बिना कार्य करना संभव नहीं है तथा योग्यता के साथ ही योग्य सामग्री की अनुकूलता भी आवश्यक है। जैसे हम व्यवहार में देखते हैं कि मूंग में पकने की योग्यता होगी तो ही अनुकूल अग्नि, पानी आदि सामग्री मिलने पर पकते हैं। करडु मूंग में पकने की योग्यता नहीं होने के कारण अनुकूल सामग्री मिलने पर भी नहीं पकते हैं। अर्थात् योग्यता एवं अनुकूल सामग्री दोनों का मिलन होना आवश्यक है। उसी प्रकार उपाध्याय यशोविजय योगमार्ग के ज्ञाता थे। उन्होंने योगमार्ग में उन्हीं जीवों को ग्रहण किया है, जो योग्य हों, अतः योगविंशिका की टीका में उन्होंने यथार्थ जैन जीवन के चार क्रम विकास विभाग बताये हैं। जिस प्रकार वैदिक परम्परा में ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ 374 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org