________________ ___ तन्त्रयोग335 के अन्तर्गत हठयोग सिद्धान्त की स्थापना करते हुए आदिनाथ ने योग की क्रियाओं द्वारा शरीर के अंग, प्रत्यंगों पर प्रभुत्व प्राप्त करने तथा मन की स्थिरता प्राप्त करने का रहस्य बताया है। उपरोक्त सम्पूर्ण व्याख्याओं को भी समाविष्ट करते हुए उपाध्याय यशोविजय ने योग विषयक यह भी एक व्याख्या प्रस्तुत की है-मोक्ष का कारणभूत ऐसा सम्पूर्ण धर्म व्यापार योग ही कहलाता है।355 योग की विस्तृत और अविच्छिन्न में जैनों का भी अपना विशिष्ट स्थान रहा है। बौद्धों की भांति निवृत्तिपरक विचारधारा के पोषक जैन साहित्य में भी योग की बहुत चर्चा हुई है और उसका महत्त्व स्वीकारा गया है। सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन आदि आगमों में उल्लिखित अज्जप्पजोग,357 समाधिजोग:58 आदि पदों में जिनका अर्थ ध्यान या समाधि है, योग की ही ध्वनि सन्निहित है। वास्तव में देखा जाए तो योग के क्रमबद्ध विवेचन का सूत्रपात आचार्य हरिभद्र ने किया है। उन्होंने योग की सांगोपांग व्याख्या योगशतक, योगबिन्दु, योगदृष्टि समुच्चय, योगविंशिका आदि ग्रंथों में की है। इस सन्दर्भ में शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव, हेमचन्द्र का योगशास्त्र तथा महोपाध्याय यशोविजय के योगावतार बत्तीसी, पातंजल योगसूत्र, योगविंशिका की टीका तथा योगदृष्टि की सज्सावमाला, अध्यात्मोपनिषद् आदि ग्रंथ विशेष उल्लेखनीय हैं, जिनमें योगविषयक विस्तृत विवेचन हुआ है। उपाध्याय यशोविजय ने यहाँ तक कह दिया-ठाणा इगओ विसेसेण के द्वारा उन्होंने आत्मा की आलय विहारादि कोई भी धर्मप्रवृत्ति यदि आत्मा को कर्म-बन्धन से मुक्त करवाकर स्वाभाविक महानगर के साथ जोड़े, यह धर्मप्रवृत्ति योग है। इस प्रकार योग की परम्परा भारतीय संस्कृति में अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित है और चिरकाल से भारतीय मनीषियों, विचारकों तथा महापुरुषों ने अपने-अपने जीवन एवं विचारों में योग को यथोचित 'स्थान दिया है। संक्षिप्त में योग शब्द का सम्बन्ध युग शब्द से भी है, जिसका अर्थ जोतना होता है और जो अनेक स्थलों पर इसी अर्थ में वैदिक साहित्य में प्रयुक्त है। युग शब्द प्राचीन आर्य शब्दों का प्रतिनिधि त्व करता है। यह जर्मन के जोक (Jock), एंग्लो सैक्सन (Anglo Suxon), गेओक (Geoc), इउक (IUC), इंओक (IOC) समानार्थकता में देखा जा सकता है। योग की परिभाषा का परिष्कृत लक्षण उपाध्याय यशोविजय ने प्रस्तुत किया है। योग का लक्षण-व्यवहार एवं निश्चयनय से निश्चय नय से योग का लक्षण ___ जो अवश्य फल देता है अथवा शीघ्र फल की प्राप्ति हो, उसे निश्चयनय की अपेक्षा से योग कहा जाता है। निश्चय नय का लक्षण बताते हुए योगशतक में कहा गया है कि सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इस रत्नत्रयी का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना, आत्मा के साथ एकमेक होना, आत्मा में अवस्थित होना ही निश्चय नय से योग कहलाता है, क्योंकि वही आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़ता है। ऐसा लक्षण है, यह अपनी मति-कल्पना से नहीं परन्तु योगियों के नाथ तीर्थंकर भगवंतों ने कहा है। 371 26 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org