Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ वैसे ही महर्षि पतंजलि, वैयाकरण केशरी कैयट, प्रकाण्ड विद्वान् कुमारिल भट्ट एवं आचार्यश्री वाचस्पति मिश्र ने भी भिन्न-भिन्न रूप में स्याद्वाद को सिद्ध किया है। अनेकान्तवाद अथवा अपेक्षावाद का सिद्धान्त कुछ नवीन या कल्पित सिद्धान्त नहीं है किन्तु अति प्राचीन तथा पदार्थों की उनके स्वरूप के अनुरूप यथार्थ व्यवस्था करने वाला सर्वानुभवसिद्ध सुव्यवस्थित और निश्चित सिद्धान्त है। तात्विक विषयों की समस्या में उपस्थित होने वाली कठिनाइयों को दूर करने के लिए अपेक्षावाद के समान उसकी कोटि का दूसरा कोई सिद्धान्त नहीं है। विरुद्धता में विविधता का मान कराकर उसका सुचारू रूप से उपयोग करने में अनेकान्तवाद-अपेक्षावाद का सिद्धान्त बड़ा ही प्रवीण एवं सिद्धहस्त है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शनाध्यापक भिक्खनलाल आत्रेय एम.ए. डी.लिट. स्याद्वादमंजरी के प्राक्कथन में स्याद्वाद के संबंध में बता रहे हैं कि सत्य और उच्चभाव और विचार किसी एक जाति या मजहब वालों की वस्तु नहीं है। इन पर मनुष्य मात्र का अधिकार है। मनुष्य मात्र को अनेकान्तवादी, स्याद्वादवादी और अहिंसावादी होने की आवश्यकता है। केवल दार्शनिक क्षेत्र में ही नहीं, धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में भी। प्रोफेसर जयंतीलाल भाईशंकर दवे एम.ए. दार्शनिक साहित्य में दृष्टांत एवं उपमाओं के लेख में स्याद्वाद के संबंध में कह रहे हैं विरुद्ध दिखने वाले तमाम मतों की विविध अपेक्षा-दृष्टियों के द्वारा संगीत करना ही अनेकान्त दृष्टि का वास्तविक स्वरूप है। एक जैनग्रंथ में यह पूरा विषय एक ही श्लोक में समा दिया हैजे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाण्इ से एग जाणइ। ... (षड्दर्शन : समन्वय टीका) जो एक को जानता है, वो सबको जानता है और जो सबको जानता है, वो एक को जानता है। ऐसा ही दूसरा श्लोक, जो निम्न है एसो भाव! सर्वथा येन दृष्टा, सर्व भावाः सर्वथा तेन दृष्टा, .. सर्व भावा! सर्वथा येन दृष्टा, एसो भाव! सर्वथा तेन दृष्टा। अर्थात् वस्तु का एक स्वभाव ही वस्तु के अन्तर्गत दूसरे स्वभावों के साथ ओतप्रोत होने से एक को जानने से अपने आप दूसरे स्वभावों का ज्ञान हो जाता है एवं एक वस्तु को पूर्ण जानने से भी उनके सभी गुणधर्मों को अपने आप समझ में आ जाता है। संक्षिप्त में अनेकान्तवाद का सारतम रहस्य एक ही श्लोक में मार्मिक ढंग से दिखाया गया है। इस प्रकार दार्शनिक दृष्टिकोण में अनेकान्तवाद-स्याद्वाद की विधि के प्राचीन प्रमाण जैन-दर्शन एवं जैनेत्तर दर्शन में मिलता है। इनके अलावा भी कई प्रमाण दृष्टिगोचर होता है। लेकिन यह इतने ही प्रमाणों का प्रतिदिन दिग्दर्शन किया है, वो निर्विवाद है। 28 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org