Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
View full book text
________________ वैशेषिक सूत्र में भी कहा है द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वं च सामान्यानि विशेषाश्च / द्रव्यगुण और कर्म को युगपद सामान्य, विशेष, उभय रूप मानना ही अनेकान्त है। पुनः वस्तु सत्-असत् रूप है। इस तथ्य को भी कणाद महर्षि के अन्योन्य भाव के प्रसंग से स्वीकार किया है। तात्पर्य यह है कि वस्तु स्वरूप की अपेक्षा से अस्तिरूप है और पर-स्वरूप की अपेक्षा नास्तिरूप है। यही तो अनेकान्त है, वैशेषिकों को भी मान्य है। पातंजल योगसूत्र ने वस्तु को नित्यानित्य स्वीकार किया है। उन्होंने धर्म, लक्षण एवं अवस्था रूप से तीन प्रकार के धर्मी परिणाम बतलाए हैं। सुवर्ण के उदाहरण से स्पष्ट उनका सिद्धान्त अनेकान्त का अनुयायी है। पाश्चात्य दर्शन ने भी अनेकान्त के सिद्धान्त का उपयोग किया है। जैन का सदसत्कार्यवाद ___जैन मूलतः अनेकान्तवादी है। दर्शन की किसी भी समस्या का समाधान वह अनेकान्तवाद के आधार पर देता है। अनेकान्त का आधार यह है कि किसी भी परिस्थिति का विश्लेषण जो एक सामान्य व्यक्ति करता है, वह गलत नहीं होता। यदि किसी व्यक्ति से हम यह पूछे कि मिट्टी से घड़ा बनने पर कोई नई चीज बनी या नहीं तो वह उत्तर देता कि कुम्हार ने मिट्टी को टालकर घड़ा बनाया है लेकिन मिट्टी का रूप घड़ा बनने के समय बदल गया है। जैन इसे ही इस रूप में कहेगा कि द्रव्य की दृष्टि से मिट्टी और घड़ा एक ही है किन्तु पर्याय की दृष्टि से दोनों भिन्न हैं। कारण कार्य की भाषा में कहें तो मिट्टी कारण है, घड़ा कार्य है और द्रव्य की दृष्टि से दोनों एक हैं। इसलिए हम कहेंगे कि घड़ा द्रव्य की दृष्टि से कोई नई चीज नहीं है किन्तु पर्याय की दृष्टि से वह अवश्य नया है। इस विश्लेषण का परिणाम यह हुआ कि जैन दार्शनिकों ने यह माना कि कार्य कारण में द्रव्य रूप में रहता है किन्तु पर्याय रूप में वह कारण में रहता है, अपितु नया उत्पन्न होता है। कार्य कारण के इस सिद्धान्त को सदसत्कार्यवाद या परिणामी नित्यत्ववाद कहा जाता है। जैन दर्शन में अनेकान्त विषयक दृष्टि - जैन दर्शन ने वस्तु का स्वरूप द्रव्यपर्यायात्मक स्वीकार किया है तथा विविध दर्शनों की एकान्तिक मान्यताओं को अनेकान्त के सूत्र में पिरोकर एक विशेष दृष्टि प्रदान की। यद्यपि सभी दर्शनों की वस्तु स्वरूप के प्रतिपादन की अपनी-अपनी दृष्टि है परन्तु उनकी मान्यताओं में अनेकान्त के बीज अवश्य ही विद्यमान हैं, क्योंकि उसके माने बिना कहीं-न-कहीं विसंगतियां उत्पन्न होती हैं। जैन दर्शन में नय दृष्टियों के अन्तर्गत ये सभी दृष्टियाँ मान्य हैं परन्तु उनमें धर्मान्तर सापेक्षता की स्वीकृति आवश्यक है अन्यथा वे भी कुनय की श्रेणी में आ जायेंगे। अनेकान्त के द्वारा ही विविध दार्शनिक समस्याओं का समाधान शक्य है, क्योंकि उनकी अस्वीकृति में वस्तु का अर्थक्रियाकारित्व नहीं बन सकता। विश्व और सृष्टि की प्रक्रिया जानने के लिए जैन आचार्यों ने अनेकान्त दृष्टि की स्थापना की। उनका अभिमत था कि द्रव्य अनन्तधर्मात्मक है। उसे एकान्त दृष्टि से नहीं जाना जा सकता। उसे जानने के लिए अनन्त दृष्टियां चाहिए। उन सब दृष्टियों के सकल रूपों को प्रमाण और विकल रूपों को नय कहा जाता है। 268 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org