Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ कर्म की पौद्गलिकता जैन दर्शनानुसार कर्म मूर्त है, पौद्गलिक है। आश्रव के द्वारा कर्म पुद्गल आकृष्ट होते हैं। ये आत्मा के साथ चिपक जाते हैं, आत्मा के शुद्ध स्वरूप को आवृत्त कर देते हैं। शुभ प्रवृत्ति द्वारा पुण्यबंध तथा अशुभ प्रवृत्ति द्वारा पाप का बंध होता है। कर्म अपने आप में एक ऐसा पौद्गलिक (भौतिक) बल है, जो आत्मा के द्वारा विशेष प्रकार के स्कन्धों को ग्रहण कर उनमें अपनी आध्यात्मिक दशानुसार फल शक्ति का उत्पादन कर भोगा जाता है। इस दृष्टि से इसे आध्यात्मिक भौतिक बल के रूप में समझना होगा। मूलतः तो यह पौद्गलिक ही है। इस संसार में अनेक पुद्गल हैं लेकिन सभी पुद्गल कर्म स्वरूप नहीं बनते हैं। आठ वर्गणाओं में जो कार्मण वर्गणा है, उसमें जो पुद्गल प्रयुक्त होते हैं, वे ही कर्म रूप में ग्रहण होते हैं, और इसी कारण से सभी कर्म पुद्गल स्वरूप कहे जाते हैं। ऐसा आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रंथों में लिखा है, वह इस प्रकार है चितं पोग्गलरूपं विन्नेयं सव्वमेवेदं।" कम्मं च चितपोन्गलरूवं / / / ज्ञानावरणीय आदि कर्म चित्र विचित्र अनेक फल अनुभवों में कारणभूत होने से विचित्र स्वरूप वाले हैं तथा इन सभी कर्म पुद्गलों को द्रव्यमय समझना चाहिए। इसी बात की पुष्टि करते हुए उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी की टीका में विवेचन किया है एगमवि गहणदव्वं, सव्वपणयाइ जीवेदेसम्मि। सव्वप्पणया सव्वत्य वावि सव्वे गहणखंधे।। अर्थात् एक-एक प्रदेश में रहे हुए स्कंध को ग्रहण करने में सभी जीव प्रदेश का व्यापारना सिद्ध होता है। सर्वप्रथम पर रहे हुए स्कन्धों को ग्रहण करने से सभी जीव-प्रदेशों का व्यापार अणुसंगत है। कर्मबन्ध की प्रक्रिया बन्ध का सामान्य अर्थ है दो भिन्न-भिन्न अस्तित्व वाली वस्तुओं का एक-दूसरे के साथ मिल जाना, संयुक्त हो जाना। लौकिक व्यवहार में संप्रयुक्त बन्ध के इस अर्थ को शास्त्रकार भगवंतों ने भी स्वीकार किया है कि भिन्न-भिन्न अस्तित्व वाले आत्मतत्त्व और अनात्मतत्त्व का जो विशिष्ट संयोग होता है, उसे बन्ध कहते हैं। आचार्य तुलसी ने बंध की परिभाषा करते हुए कहा है कर्मः पुद्गलादानं बन्धा। कर्म पुद्गलों को ग्रहण करना बंध है। दूसरे शब्दों में अपनी सद्-असद् प्रवृत्तियों के द्वारा जो कर्म बनने की योग्यता रखते हैं, ऐसे पुद्गलों का आकर्षण कर उन्हें अपने साथ बांध देती है। इसी प्रक्रिया का नाम बंध है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने श्रावक प्रज्ञप्ति की टीका में बन्ध की व्याख्या इस प्रकार की है-कषाय सहित होने के कारण जीव जो कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण किया करता है, उसे बन्ध कहते हैं।” तत्त्वार्थ की टीका,28 षड्दर्शन समुच्चयं एवं कम्मपयडी टीका में भी बन्ध की इसी व्याख्या की स्वीकृति दी है। 328 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org